Thursday, November 26, 2015
Wednesday, November 25, 2015
मैं कोई मुल्क नहीं हूं कि जला दोगे मुझे :-- ओशो
मैं कोई मुल्क नहीं हूं कि जला दोगे मुझे
कोई दीवार नहीं हूं कि गिरा दोगे मुझे
कोई सरहद भी नहीं हूं कि मिटा दोगे मुझे
यह जो दुनिया का पुराना नक्शा
मेज पर तुमने बिछा रक्खा है
इसमें कावाक लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं
तुम मुझे इसमें कहा ढूंढते हो
मैं इक अरमान हूं दीवानों का
सख्त—जां ख्वाब हूं कुचले हुए इंसानों का
लूट जब हद से सिवा होती है
जुल्म जब हद से गुजर जाता है
मैं अचानक किसी कोने में नजर आता हूं
किसी सीने से उभर आता हूं आज से पहले भी तुमने मुझे देखा होगा
कभी मशरिक में कभी मगरिब में
कभी शहरों में कभी गौवों में
कभी बस्ती में कभी जंगल में
मेरी तारीख ही तारीख है, जुगराफिया कोई भी नहीं
और तारीख भी ऐसी जो पढ़ाई तो जा नहीं सकती
लोग छुप—छुप के पढ़ा करते हैं
कि मैं गालिब कभी मगलूब हुआ
कातिलों को कभी सूली पे चढ़ाया मैंने
और कभी आप ही मसलूब हुआ
फर्क इतना है कि कातिल मेरे मर जाते हैं
मैं न मरता हूं न मर सकता हूं
धर्म ऐसा शाश्वत विद्रोह है, जो न मरता है, न मर सकता है। लौट—लौट आता है। एक बुद्ध बिदा होता है कि तुम जल्दी ही फिर अपनी नींद में खोने लगते हो। तुम जल्दी से अपनी चादर ओढ़ लेते हो, अपने तकिए सम्हाल लेते हो, तुम फिर निश्चित होकर सपना देखने लगते हो। लेकिन किसी न किसी कोने से बगावत फिर उभर आती है। किसी न किसी कोने से परमात्मा फिर आवाज देता है। परमात्मा तुम से हारता नहीं। और परमात्मा तुम से ऊबता भी नहीं। और परमात्मा तुम्हारे प्रति उपेक्षा से भी नहीं भरता है। तुम लाख भटको, तुम्हारी हर भटकन उसके लिए एक चुनौती है। वह फिर लौट आता है।
कृष्ण ने कहा न गीता में, मैं फिर—फिर आऊंगा—संभवामि युगे—युगे। जब—जब अंधेरा होगा, और जब—जब लोगों का मन धर्म के प्रति ग्लानि से भर जाएगा, और जब—जब शुभ पर अशुभ की प्रतिष्ठा होगी, और जब—जब सज्जन को असज्जन सताएगा, मैं आऊंगा। यह कृष्ण का ही वचन नहीं है, कृष्ण धर्म की तरफ से बोल रहे हैं। कोई कृष्ण आ जाएंगे, ऐसा नहीं है, लेकिन किसी कोने से धर्म उभर आएगा, बगावत उठेगी, कोई न कोई सोयों में से जाग जाएगा, कहीं से किरण फूटेगी।
धर्म न तो मरता है, न मारा जा सकता है; लेकिन जिन्हें भी धर्म को पाना हो, उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्म जब भी आता है तो विद्रोह की तरह आता है। विद्रोह के ही रूप में आता है। वही उसकी देह है। और अगर तुम विद्रोह को न पहचान सको तो तुम धर्म से चूकते चले जाओगे। तुम गीताओ में सिर मारो और कुरानों की पूजा करो और बाइबिलों में आखें गड़ाए—गड़ाए अंधे हो जाओ, धर्म तुम्हें नहीं मिलेगा। धर्म जब आता है तब बगावत की तरह आता है। गीता, कुरान और बाइबिल कभी बगावत थे, मगर वह बात गई। अब तुम लाश ढोते हो। अब तुम्हें फिर कहीं खोजना होगा कोई जो जागा हुआ हो। तुम्हें फिर किसी क्राइस्ट का हाथ पकड़ना होगा। और कठिनाई यही है कि बाइबिल प्यारी लगती है और क्राइस्ट बहुत कष्टकर मालूम होते है।
बाइबिल प्यारी लगती है क्योंकि बाइबिल तुम्हें बदल ही नहीं सकती। तुम बाइबिल का तकिया बना लेते हो और मजे से सो जाते हो। सर्दी ज्यादा हो तो बाइबिल का कंबल बना लेते हो और ओढ़ लेते हो, मजे से सो जाते हो। क्राइस्ट का न तो तुम तकिया बना सकोगे और न कंबल बना सकोगे। अगर नींद न आती हो तो तुम बाइबिल की गोलियां बना लेते हो—शामक दवाएं, टैरक्युलाइजर्स—और उनको पीकर सो जाते हो, और गहरी नींद मे खो जाते हो। तुम जीसस का टैरक्युलाइजर न बना सकोगे। तुम जीसस से नींद का कोई उपाय न खोज सकोगे।
इसलिए लोग जीवित सदगुरु से भागते हैं। और जब सदगुरु मर जाता है तब उसकी पूजा करते हैं। अजीब रिवाज है। अजीब रिवाज है तुम्हारा! अजीब ढंग है! अजीब ढर्रा है तुम्हारा! क्राइस्ट मौजूद हों तो सूली लगाओ, और जब मर जाएं तो सारी दुनिया ईसाई हो जाती है। मोहम्मद जब हों तो तुम उन्हें एक गांव में शांति से नहीं बैठने देते—मोहम्मद की जिंदगीभर एक गांव से दूसरे गाव में भागने मे बीती। और जब मोहम्मद मर जाते हैं, तो तुम लाखों मस्जिदें बनाते हो। करोड़ों लोग मोहम्मद के चरणों में सर झुकाते है। करोड़ों लोगो के लिए मोहम्मद हृदय की गहरी से गहरी धुन हो जाते हैं। मगर यह बड़ा मजा है। इस मजे को देखो, पहचानो।
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—67 (ओशो)
‘यह जगत परिवर्तन का है, परिवर्तन ही परिवर्तन का। परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।’
पहली बात तो यह समझने की है कि तुम जो भी जानते हो वह परिवर्तन है, तुम्हारे अतिरिक्त जानने वाले के अतिरिक्त सब कुछ परिवर्तन है। क्या तुमने कोई ऐसी चीज देखी है। जो परिवर्तन न हो। जो परिवर्तन के अधीन न हो। यह सारा संसार परिवर्तन की घटना है।
हिमालय भी बदल रहा है। हिमालय का अध्यन करने वाले वैज्ञानिक कहते है कि हिमालय बढ़ रहा है। बड़ा हो रहा है। हिमालय संसार का सबसे कम उम्र का पर्वत है। वह अभी बच्चा है और बढ़ रहा है। वह अभी प्रौढ़ नहीं हुआ है। वह अभी उस अवस्था को नहीं प्राप्त हुआ है। जहां पहूंच कर ह्रास या गिरावट शुरू होती है। हिमालय बच्चे जैसा है। विंध्याचल संसार के सबसे पुराने पर्वतों में हैं। कुछ तो उसे दुनियां का सबसे पुराना पर्वत मानते है। सदियों से वह अपने बुढ़ापे के कारण क्षीण हो रहा है। मर रहा है।
तो इतना स्थिर और अडिग और दृढ़ मालूम पड़ने वाला हिमालय भी बदल रहा है। वह बस पत्थरों कीं नदी जैसा नहीं है। पत्थर होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। पत्थर भी प्रवाहमान है, बह रहा है। तुलनात्मक दृष्टि से सब कुछ बदल रहा है। लेकिन ऐसा सापेक्षत: है।
कोई भी चीज, जिसे तुम जान सकते हो बदलाहट के बिना नहीं है। मेरी बात खयाल में रहे। जिसे तुम जानते हो वह वस्तु नित्य बदल रही है। जाननेवाले के अतिरिक्त कुछ भी नित्य नहीं है। शाश्वत नही है। लेकिन जानने वाला सदा पीछे है। वह सदा जानता है; वह कभी जाना नहीं जाता। वह कभी आब्जेक्ट्स नहीं बन सकता; वह सदा सब्जैक्ट ही रहता है। तुम जो कुछ भी करते हो या जानते हो, जाननेवाला सदा उससे पीछे है। तुम उसे नहीं जान सकते हो।
और जब मैं कहता हूं कि तुम जाननेवाले को नहीं जान सकते, तो इससे परेशान मत होओ। जब मैं कहता हूं कि तुम उसे नहीं जान सकते हो तो उसका मतलब है कि तुम उसे विषय की तरह नहीं जान सकते हो। मैं तुम्हें देखता हूं , लेकिन मैं उसी तरह अपने को कैसे देख सकता हूं। यह असंभव है। क्योंकि ज्ञान के लिए दो चीजें जरूरी है। ज्ञाता और ज्ञेय। तो जब मैं तुम्हें देखता हूं तो तुम ज्ञेय हो और मैं ज्ञाता हूं। और दोनों के बीच ज्ञान सेतु की तरह है। लेकिन ज्ञान का यह सेतु कहां बनेगा। जब मैं अपने को ही देखता हूं। जब मैं अपने को ही जानने की कोशिश करता हूं। वहां तो केवल मैं ही हूं, पूरी तरह अकेला मैं हूं। दूसरा किनारा बिलकुल अनुपस्थित है। फिर सेतु कहां निर्मित किया जाए? स्वयं को जाना कैसे जाएं?
तो आत्मज्ञान एक नेति-नेति प्रक्रिया है। तुम अपने को सीधे-सीधे नहीं जान सकते; तुम सिर्फ ज्ञान के विषयों को हटाते जा सकते हो। ज्ञान के विषयों को एक-एक करके छोड़ते चले जाओ। और जब ज्ञान का कोई विषय न रह जाए, जब जानने को कुछ भी न रह जाए। सिर्फ एक शून्य, एक खाली पन रह जाए—और यही ध्यान है। ज्ञान के विषयों को छोड़ते जाना—तब एक क्षण आता है जब चेतना तो है लेकिन जानने के लिए कुछ नहीं है। जानना तो है, लेकिन जानने को कुछ नहीं बचता है। तब जानने की सहज-शुद्ध ऊर्जा रहती है। लेकिन जानने को कुछ नहीं बचता है। कोई विषय नहीं रहता है। उस अवस्था में जब जानने को कुछ नहीं रहता, तुम एक अर्थों में स्वयं को जानते हो। अपने को जानते हो।
लेकिन यह ज्ञान अन्य सब ज्ञान से सर्वथा भिन्न है। दोनो के लिए एक ही शब्द का उपयोग करना भ्रामक है। इसीलिए अनेक रहस्यवादियों ने कहा है कि आत्मज्ञान शब्द विरोधाभासी है। ज्ञान सदा दूसरे को होता है। अंत: आत्म ज्ञान संभव नहीं है। जब दूसरा नहीं होता है तो कुछ होता है, तुम उसे आत्म ज्ञान कह सकते हो। लेकिन यह शब्द भ्रामक है।
तो तुम जो भी जानते हो वह परिवर्तन है। ये जो दीवारें है, ये भी निरंतर बदल रही है। और भौतिक शास्त्र भी इसका समर्थन करता है। जो दीवार है, ये स्थाई मालूम पड़ती है। ठहरी हुई लगती है। वह भी प्रति पल बदल रही है। एक-एक परमाणु बह रहा है। प्रत्येक चीज बह रही है। लेकिन उसकी गति इतनी तीव्र है कि उसका पता नहीं चलता है। दोपहर भी वह ऐसे लगती थी श्याम भी ऐसे लगती है।
यह सूत्र कहता है कि सभी चीजें बदल रही है। ‘यह जगत परिवर्तन का है…..।’
इस सूत्र पर ही बुद्ध का समस्त दर्शन खड़ा है। बुद्ध कहते है कि प्रत्येक चीज बहाव है, बदल रही है। क्षणभंगुर है। और यह बात प्रत्येक व्यक्ति को जान लेना चाहिए। बुद्ध का सारा जोर इसी एक बात पर है; उनकी पूरी दृष्टि इसी बात पर आधारित है।
तुम्हें एक चेहरा दिखाई देता है, बहुत सुंदर है। और जब तुम सुंदर रूप को देखते हो तो भाव होता है कि यह रूप सदा ही ऐसा रहेगा। इस बात को ठीक से समझ लो ऐसी अपेक्षा कभी मत करो। और अगर तुम जानते हो कि यह रूप तेजी से बदल रहा है, कि यह इस क्षण सुंदर है और अगले क्षण कुरूप हो जायेगा। तो फिर आसक्ति कैसे पैदा होगी? असंभव है। एक शरीर को देखो,वह जीवित है; अगले क्षण वह मृत हो सकता है। अगर तुम परिवर्तन को समझो तो सब व्यर्थ है।
बुद्ध ने अपना महल छोड़ दिया, परिवार छोड़ दिया। सुंदर पत्नी छोड़ दी, प्यारा पुत्र छोड़ दिया। और जब किसी ने पूछा कि क्यों छोड़ रहे हो, तो उन्होंने कहां: ‘जहां कुछ भी स्थाई नहीं है,वहां रहने का क्या प्रयोजन? बच्चा एक न एक दिन मर जायेगा।’ और बच्चे का जन्म उसी रात हुआ था। उसके जन्म के कुछ घंटे बाद ही उन्होंने उसे अंतिम बार देखा। अपनी पत्नी के कमरे में गये। पत्नी की पीठ दरवाजे की और थी और वह बच्चे को अपनी बांहों में लिए सो रही थी। बुद्ध ने अलविदा कहना चाहा। लेकिन वे झिझके। उन्होंने कहा: ‘एक क्षण उनके मन में यह विचार कौंधा कि बच्चे के जन्म के कुछ घंटे ही हुए है। मैं उसे अंतिम बार देख हूं। तब उनके मन ने कहां, क्या प्रयोजन है, सब तो बदल रहा है। आज बच्चा पैदा हुआ है। कल मर जायेगा। एक दिन पहले यह नहीं था, अभी वह है। और एक दिन फिर नहीं रहेगा। तो क्या प्रयोजन है सब बदल रहा है।’ वे मुड़े और विदा हो गये।
जब किसी ने पूछा कि आपने क्यों सब कुछ छोड़ दिया? मैं अपनी खोज में हूं। जो कभी नहीं बदलता,जो शाश्वत है। यदि मैं परिवर्तनशील के साथ अटका रहूंगा। तो निराशा ही हाथ आयेगी। क्षण भंगुर से आसक्त होना मूढ़ता है। वह कभी ठहरने वाला नहीं है। मैं मूढ़ नहीं हूं। मैं तो उसकी खोज कर रहा हूं जो कभी नहीं बदलता, जो नित्य है। अगर कुछ शाश्वत है तो ही जीवन में अर्थ है, जीवन में मूल्य है। अन्यथा सब व्यर्थ है।
यह सूत्र सुंदर है। यह सूत्र कहता है। ‘परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।‘’
बुद्ध कभी दूसरा हिस्सा नहीं कहते। यह दूसरा हिस्सा बुनियादी रूप से तंत्र से आया है। बुद्ध इतना ही कहेंगे। कि सब कुछ परिवर्तनशील है। इसे अनुभव करो। और तुम्हें आसक्ति नहीं होगी। और जब आसक्ति नहीं होगी तो धीरे-धीरे अनित्य को छोड़ते-छोड़ते तुम अपने केंद्र पर पहुंच जाओगे। जो नित्य है। शाश्वत है। परिवर्तन को छोड़ते जाओ और तुम अपरिवर्तन पर केंद्र पर, चक्र के केंद्र पर पहुंच जाओगे।
इस लिए बुद्ध ने चक्र को अपने धर्म का प्रतीक बनाया है। क्योंकि चक्र चलता रहता है। लेकिन उसकी धुरी, जिसके सहारे चक्र चलता है, ठहरी रहती है। स्थाई है। तो संसार चक्र की भांति चलता रहता है। तुम्हारा व्यक्तित्व चक्र की भांति बदलता रहता है। धुरी अचल रहती है।
तंत्र कहता है कि जो परिवर्तनशील है उसे छोड़ो मत, उसमे उतरो, उसमें जाओ। उससे आसक्त मत होओ। लेकिन उसमें जीओं। उससे डरना क्या है? उसे घटित होने दो। और तुम उसमें गति कर जाओ। उसे उसके द्वारा ही विसर्जित करो। डरों मत; भागों मत। भागकर कहां जाओगे। इससे बचोगे कैसे? सब जगह तो परिवर्तन है। तंत्र कहता है,बदलाहट ही मिलेगी। सब भागना व्यर्थ है। भागने की कोशिश ही मत करो। तब करना क्या है?
आसक्ति मत निर्मित करो। तुम परिवर्तन हो जाओ। उसके साथ कोई संघर्ष मत खड़ा करो। उसके साथ बहो। नदी बह रही हे। उसके साथ बहो। तेरो भी मत। नदी को ही तुम्हें ले जाने दो। उसके साथ लड़ों मत; उससे लड़ने से तुम्हारी शक्ति बरबाद होगी। और जो होता है, उसे होने दो। नदी के साथ बहो।
इससे क्या होगा? अगर तुम नदी के साथ बिना संघर्ष किए बह सके; बिना किसी शर्त के बह सके, अगर नदी की दिशा ही तुम्हारी दिशा हो जाए, तो तुम्हें अचानक यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं, तुम्हें यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं, इसे अनुभव करो; किसी दिन नदी में उतर कर इसका प्रयोग करो। नदी में उतरो, विश्राम पूर्ण रहो और अपने को नदी के हाथों में छोड़ दो। उसे तुम्हें बहा ले जाने दो। लड़ों मत, नदी के साथ एक हो जाओ। तब अचानक तुम्हें अनुभव होगा कि चारों तरफ नदी है, लेकिन मै नदी नहीं हूं।
यदि नदी में लड़ोगे तो तुम यह बात भूल जा सकते हो। इसीलिए तंत्र कहता है: ‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’ लड़ो मत, लड़ने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि परिवर्तन तुममें नहीं प्रवेश कर सकता है। डरो नहीं; संसार में रहो। डरो मत;क्योंकि संसार तुममें प्रवेश नहीं कर सकता है। उसे जीओं। कोई चुनाव मत करो।
दो तरह के लोग है। एक वे जो परिवर्तन के जगत से चिपके रहते है। और एक वे है जो उससे भाग जाते है। लेकिन तंत्र कहता है कि जगत परिवर्तन है, इसलिए उससे चिपकना नहीं है। दोनों व्यर्थ है। इससे भागने को। वह बदल ही रहा है। तुम नहीं थे तब यह बदल रहा था। तुम नहीं रहोगे तब भी यह बदलता रहेगा। फिर इसके लिए इतना शोर गूल क्यो?
‘परिवर्तन को परिवर्तन से विसर्जित करो।’
यह एक बहुत गहन संदेश है। क्रोध को क्रोध से विसर्जित करो; काम को काम से विसर्जित करो; लोभ को लोभ से विसर्जित करो, संसार को संसार से विसर्जित करो। उससे संघर्ष मत करो, विश्रामपूर्ण रहो। क्योंकि संघर्ष से तनाव पैदा होता है; तनाव से चिंता और संताप पैदा होता है। विश्रामपूर्ण रहो। तुम नाहक उपद्रव में पड़ोगे। संसार जैसा है उसे वैसा ही रहने दो।
दो तरह के लोग है जो संसार को वैसा ही नहीं रहने देना चाहते जैसा वह है। वे क्रांतिकारी कहलाते है। वे उसे बदलेंगे ही; वे उसे बदलने के लिए जद्दोजहद करेंगे। वे उसे बदलने में अपना सारा जीवन लगा देंगे। और यह जगत अपने आप बदल रहा है। उनकी कोई जरूरत नहीं है। वे अपने को नष्ट करेंगे। दुनिया को बदलने में वे खुद खत्म होंगे। और संसार बदल ही रहा है; इसके लिए किसी क्रांति की जरूरत नहीं है। संसार स्वयं एक क्रांति है; वह बदल ही रहा है।
तुम्हें आश्चर्य होगा। की भारत में महान क्रांतिकारी क्यों नहीं पैदा हुए। यह इसी अंतदृष्टि का परिणाम है कि सब अपने आप ही बदल रहा है। उसके लिए क्रांति की कोई जरूरत नहीं है। तुम उसे बदलने के लिए क्यों परेशान होते हो। तुम न उसे बदल सकते हो और न बदलाहट को रोक सकते हो।
एक तरह का व्यक्तित्व सदा संसार को बदलने की चेष्टा करता है। धर्म की दृष्टि में वह मानसिक तल पर रूग्ण है। सच तो यह है अपने साथ रहने में उसे भय लगता है। इसलिए वह भागता फिरता है। और संसार में उलझा रहता है। राज्य को बदलना है, सरकार को बदलना है; समाज , व्यवस्था, अर्थनीति, सब कुछ को बदलना है। और इसी सब में वि मर जाएगा। और उसे आनंद का, उस समाधि का एक कण भी नहीं उपलब्ध होगा। जिसमें वह जान सकता था कि मैं कौन हूं। और संसार चलता रहेगा। संसार चक्र घूमता रहेगा। संसार चक्र ने अनेक क्रांतिकारी देखे है। और वह घूमता ही जाता है। तुम न तो इसे रोक सकते हो, और न तुम उसकी बदलाहट को तेज ही कर सकते हो।
रहस्यवादियों की, बुद्धों की यह दृष्टि है। वे कहते है कि संसार को बदलने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन बुद्धों की भी दो कोटियां है। कोई कह सता है कि संसार को बदलने की जरूरत नहीं है, लेकिन अपने को बदलने की जरूरत तो है। वह भी परिवर्तन में विश्वास करता है। वह जगत को बदलने में नहीं, लेकिन अपने में बदलने में विश्वास करता है।
लेकिन तंत्र कहता है। कि किसी को भी बदलने की जरूरत नहीं है—न संसार को और न अपने को। रहस्य का, अध्यात्म का यह गहनत्म तल है। यह उसका अंतरतम केंद्र है। तुम्हें किसी को भी बदलने की जरूरत नहीं है—न संसार को और न अपने को। तुम्हें इतना ही जानना है कि सब कुछ बदल रहा है, और तुम्हें उस बदलाहट के साथ बहाना है, उसे स्वीकार करना है।
और जब बदलने को कोई परिवर्तन नहीं है, तो तुम समग्ररतः: विश्रामपूर्ण हो सकते हो। जब तक प्रयत्न है। तुम विश्रामपूर्ण नहीं हो सकते। तब तक तनाव बना रहेगा। क्योंकि तुम्हें अपेक्षा है कि भविष्य में कुछ होने वाला है, जगत बदलने वाला है। संसार में साम्यवाद आने वाला है। या पृथ्वी पर स्वर्ग उतरने वाला है। या भविष्य में कोई ऊटोपिया आने वाला है। या तुम प्रभु के राज्य में प्रवेश करने वाले हो। स्वर्ग में देवदूत तुम्हारा स्वागत करने के लिए तैयार खड़े है—जो भी हो; तुम भविष्य में कही अटके हो। इस अपेक्षा के साथ तुम तनावपूर्ण रहोगे।
तंत्र कहता है, इन बातों को भूल जाओ। संसार बदल ही रहा है। और तुम भी निरंतर बदल रहे हो। बदलाहट ही अस्तित्व है। इसलिए बदलाहट की चिंता मत करो। तुम्हारे बिना ही बदलाहट हो रही है। तुम्हारी जरूरत नहीं है। तुम भविष्य की कोई चिंता किए बिना उसमे बहो; और तब अचानक तुम्हें अपने भीतर के उस केंद्र का बोध हो गा जो कभी नहीं बदलता है, जो सदा वही का वही रहता है।
ऐसा क्यों होता है? क्योंकि जब तुम विश्रामपूर्ण होते हो तो बदलाहट की पृष्ठभूमि में विपरीत दिखाई पड़ता है। परिवर्तन की पृष्ठभूमि में तुम्हें सनातन का, शाश्वत का बोध होता है। अगर तुम संसार को या अपने को बदलने का प्रयत्न में लगे हो तो तुम अपने भीतर छोटे से अकंप, स्थिर ठहरे हुए केंद्र को नहीं देख पाओगे। तुम बदलाहट में इतने घिरे हो कि तुम उसे नहीं देख पाते हो जो है।
सब तरफ परिवर्तन है। यह परिवर्तन पृष्ठभूमि बन जाता है। कंट्रास्ट बन जाता है। और तुम शिथिल होते हो। विश्राम में होते हो, इसलिए तुम्हारे मन में भविष्य नहीं होता। भविष्य के विचार नहि होते। तुम यहां और अभी होते हो। यह क्षण ही सब कुछ होता है। सब कुछ बदल रहा है—और अचानक तुम्हें अपने भीतर उस बिंदू का बोध है जो कभी नहीं बदला है।
‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’
इसका अर्थ यही है। लड़ो मत। मृत्यु के द्वारा अमृत को जान लो; मृत्यु के द्वारा मृत्यु को मर जाने दो। उससे लड़ाई मत करो।
तंत्र की दृष्टि को समझना कठिन है। कारण है कि हमारा मन कुछ करना चाहता है। और तंत्र है कुछ न करना। तंत्र कर्म नहीं, पूर्ण विश्राम है। लेकिन यह एक सर्वाधिक गुह्म रहस्य है। और अगर तुम इसे समझ सको। अगर तुम्हें अगर तुम्हें इसकी प्रतीति हो जाए,तो तुम्हें किसी अन्य चीज की चिंता लेने की जरूरत नहीं है। ये अकेली विधि तुम्हें सब कुछ दे सकती है।
तब तुम्हें कुछ करने की जरूरत नही है। क्योंकि तुमने इस रहस्य को जान लिया है जो परिवर्तन से परिवर्तन का अतिक्रमण कर रहा हे। मृत्यु से मृत्यु का अतिक्रमण हो सकता है। काम से काम का अतिक्रमण हो सकता है। क्रोध से क्रोध का अतिक्रमण हो सकता है। अब तुम्हें यह कुंजी मिल गई है कि जहर से जहर का अतिक्रमण हो सकता है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-तीन
Tuesday, November 24, 2015
◆◆◆◆◆◆ REINCARNATION ◆◆◆◆◆◆ :-- OSHO
“Eastern psychology says that it is not the parents who decide your life. Really, you have chosen them.
You have chosen particular parents. You are responsible.
If I am born to a particular mother and to a particular father, this is my choice. They will determine me because I have allowed them to determine me. I have chosen them because of so many actions in my past life.
It is a chain.
So, ultimately, I remain responsible. If I choose a very violent father, or if I choose a very wise man, whatsoever my choice is, it is my choice. Then they determine me, but this determination by parents, education etc is not ultimate.
Ultimately, you remain the master; you can throw it at any moment. It is difficult but it is not impossible.
It is very difficult because it is not just like throwing your clothes. It is like changing your skin. It is so deep-rooted in you. Everything that has happened has gone so deep that it has become your blood and bones. You are made out of it. Now you cannot conceive yourself apart from it. Your identity has become mixed with it.
But still, to throw it is not impossible. You can jump out of it!
Really, all yoga is concerned only with this, how you can get out of all the influences that have made you whatsoever you are, how to jump out of them, how t go beyond, how
to go beyond your parents, how to go beyond your education, how to go beyond your heredity, how to go beyond your past lives.
The whole science of YOGA consists only in this, to help you go beyond.
“See the point. Millions of foolish people were making love when you were hovering to take birth. But still, you have chosen a certain couple, why ?
You must have a certain idea. It is your choice. And then you say, “My parents have done harm to me.” In the first place, why have you chosen them ?
Nobody is responsible except you! This is one of the hardest truths to accept. But once you accept it, it brings great freedom, great space.
Because with this, another possibility opens up. If I am responsible then I can change.
If I am not responsible, how can I change? And then the natural self comes of it’s own accord. The natural has always been there, hidden under the rubbish.”.. ...
~ OSHO ~ (The Ultimate Alchemy)
अश्लीलता - युद्ध में या चुम्बन में? :-- ओशो
यह बहुत मजे की बात है कि जीवन के असम्मान के कारण प्रेम
अशोभन मालुम पडता है। क्योंकि प्रेम जीवन का गहनतम फूल है।
अगर दो आदमी सडक पर लड रहे हों तो कोई नहीं कहता अश्लील
है। लेकिन दो आदमी गले में हाथ डालकर एक वृक्ष के नीचे बैठे
हैं,तो लोग कहेंगे ,अश्लील है! हिंसा अश्लील नहीं है,प्रेम
अश्लील है! प्रेम क्यों अश्लील है? हिंसा क्यों अश्लील नहीं है?
हिंसा मृत्यु है,प्रेम जीवन है। जीवन के प्रति असम्मान है और मृत्यु
के प्रति सम्मान है।
देखिए, कितनी हैरानी की बात है! युद्ध की फिल्में बनती
है,कोई सरकार उन पर रोक नहीं लगाती । हत्या होती है,खून
होता है फिल्म में,कोई दुनिया की सरकार नहीं कहती कि
अश्लील है। लेकिन अगर प्रेम की घटना है तो सारी सरकारें
चिंतित हो जाती हैं। सरकारें तय करती हैं कि चुंबन कितनी दूर से
लिया जाय! छः इंच का फासला हो कि चार इंच का फासला
हो! कि कितने इंच के फासले से चुम्बन श्लील होता है और कितने
इंच के फासले पर अश्लील हो जाता है! लेकिन छुरा भोंका जाये
फिल्म में,तो अश्लील नही होता! कोई नहीँ कहता कि छः इंच
दूर रहे छुरा !
यह बहुत विचार की बात है कि क्या कठिनाई है। चुम्बन में ऎसा
क्या पाप है,जो छुरा भोंकने में नहीं है? लेकिन चुम्बन जीवन का
साथी है और छुरा मृत्यु का। छुरे पर किसी को एतराज नहीं है।
हम सब आत्मघाती है।हम सब हत्यारे है।लेकिन प्रेम के हम सब दुश्मन
हैं ! यह दुश्मनी क्यों है? इसको अगर हम बहुत गहरे में खोजने जायें
तो हमारा जीवन के प्रति सम्मान का भाव नहीं है।
Wednesday, November 18, 2015
जेलर: मैंने कभी भी नहीं सोचा था कि तुम्हारी मौजूदगी से यह जेल भी मंदिर बन सकता है -ओशो :
मैं अमरीका के पहले दो दिन जेल में बंद था। तीसरे दिन उस जेल से मुझे दूसरी जेल में ले जाया गया। उस जेल का जेलर तीसरे दिन मेरे पास कोठरी में अकेला आया। उसकी आंखों में आंसू थे। और उसने कहा, मुझे एक बात की क्षमा मांगनी है। मैंने कहा, आपके द्वारा मेरे ऊपर कोई अत्याचार नहीं हुआ है। मेरी सब तरह से सुविधा की आपने व्यवस्था की है, क्षमा किस बात की? उसने कहा कि क्षमा मुझे इस बात की मांगनी है कि पहले दिन जब आप जेल में आए तो कोई आधा घंटे बाद जर्मनी से एक फोन आया और उस फोन करने वाले ने पूछा कि भगवान, आपकी जल में हैं यह आपका सौभाग्य है। और शायद आपके पूरे जीवन में ,बीते और आने वाले जीवन में ऐसे कोई व्यक्ति आपकी जेल में दुबारा नहीं आएगा। मेरा आपसे कोई परिचय नहीं था, उस बूढ़े जेलर ने कहा, और अकड़ भी थी तो उसने जर्मन फोन करने वाले को कहा कि नहीं, मेरे जेल में बहुत बड़े-बड़े लोग आ चुके हैं। बैबिनेस्ट स्तर के मिनिस्टर भी मेरी जेल में बंद रह चुके हैं। तो यह कोई नयी अनूठी बात नहीं है।
तो मैंने कहा, इसमें कोई हर्जा नहीं है। इसमें मुझसे क्षमा क्या मांगनी है? उसने कहा कि हर्जा यह है कि मुझे इस आदमी के फोन का कोई पता नहीं है। तुम नए आए थे, तुम्हें जानता न था। फिर हजारों फोन आने शुरू हुए, तार आने शुरू हुए, टैलेक्स आने शुरू हुए और हजारों फूलों की डालियां आना शुरू हुई। ऐसा मेरे जले में कभी भी न हुआ था। जेल बड़ा था, छह सौ कैदी थे, लेकिन इतने फूल आए कि फूलों को रखने की जगह न रही। उसने मुझसे पूछा, इन फूलों का मैं क्या करूं? मैंने कहा, सारे विभाग जेल के हैं उनमें बांट दो। उसने कहा, बांटने का सवाल ही नहीं हैं। उन्हीं सब विभागों में तो फूल भरे हुए हैं। तो मैंने कहा, स्कूलों में, कलेजौ को, युनिवर्सिटी को, सब विभागों को, विद्यालयों को मेरी तरफ से फूल भेज दो। जिस कोठरी में मुझे रखा गया था...वह दिन में कम से कम छह बार मुझे मिलने आता था। नर्सें परेशान थीं, डाक्टर परेशान था क्योंकि वे कहते हैं यह आदमी कभी साल-छह महीने में एक बार इस तरफ आता था और यह दिन में दह बार यहां आता है। वह अपनी पत्नी और बच्चों को दिखाने के लिए मुझे अपने साथ लाया और कहा कि बस एक ही आकांक्षा है कि मेरे साथ और मेरे परिवार के साथ-साथ एक चित्र निकलवा लें और दस्तखत कर दें। दो महीने बात मैं रिटायर हो जाऊंगा। यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी स्मृति है। क्योंकि मैंने कभी भी नहीं सोचा था कि तुम्हारी मौजूदगी से यह जेल भी मंदिर बन सकता है।
क्योंकि कैदियों ने टेलीविजन पर निरंतर मुझे देखा था। कई कैदियों के पास किताबें थीं। कुछ कैदियों ने ध्यान करने के प्रयोग किए थे। उन सबने प्रार्थना की जेलर से, कि यह हमारा सौभाग्य है कि वे तीन दिन के लिए हमारे जेल में हैं। हमें मौका दिया जाए कि हम उन्हें सुन सकें। हमें मौका दिया जाए कि वे हमें ध्यान करवा सकें। हमें मौका दिया जाए।
उस बूढ़े की यह कल्पना के बाहर था कि ये खतरनाक कैदी ध्यान करना चाहते हैं। और इन छह सौ कैदियों में एक भी मेरे विरोध में नहीं है। कोई डेढ़ सौ कर्मचारी जेल में होंगे, वे भी सब सम्मिलित होते थे ध्यान के लिए। और उसने एक आखिरी कदम उठाया जो कि कभी भी नहीं उठाया गया था। उसने मुझसे पूछा कि अनेक टेलीविजन स्टेशन, रेडियो स्टेशन पूछ रहे हैं कि क्या हम कुछ प्रश्न पूछने के लिए जेल के भीतर आ सकते हैं? इसका कोई इतिहास नहीं है। कोई जेल के भीतर इस तरह नहीं आ सकता। लेकिन उसने कहा कि मैंने उन सबको आज्ञा दी है आज सांझ सात बजे। अब मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा? दो महीने की कुल नौकरी है। ज्यादा से ज्यादा दो महीने पहले रिटायर हो जाऊंगा। उसने जेल के भीतर वर्ल्ड प्रेस कांफ्रैंस बुलायी। कोई सौ पत्रकार जेल के भीतर इकट्ठे किए। और जब मैं पत्रकारों से बोलने जा रहा था तो उसने कान में कहा कि इस बात की जरा भी चिंता न करना कि यह जेल है। और तुम्हें वही नहीं कहना है जो हमें अच्छा लगे...नहीं; तुम्हें वही कहना है जो अच्छा है। वह चाहे हमारे विरोध में हो।
और तीन दिन के बाद छोड़ते वक्त डाक्टर की आंखों में आंसू थे, नर्सों की आंखों में आंसू थे, जेलर की आंखों में आंसू थे। डाक्टर एक महिला थी और उसने कहा कि मैं नहीं चाहती कि आपको कभी इस जेल से छोड़ा जाए। मैंने कहा कि तेरी आकांक्षा तो ठीक है लेकिन सारी दुनिया में फैले मेरे संन्यासी रहा देख रहे हैं कि मुझे छोड़ा जाए। उसने कहा, इसलिए तो मैंने सिर्फ कहा कि मेरे मन का भाव है कि तुम सदा यहीं रहो। मैं मैं जानती हूं कि वहां हजारों लोग तुम्हारी प्रतीक्षा करते होंगे। जब तीन दिन में हम तुम्हारे साथ इतना मेल-जोल बढ़ा लिए, जो लोग वर्षों से तुम्हारे साथ हैं उनके दुख और चिंता को हम अनुभव कर सकते हैं लेकिन हमें भूल मत जाना।
- ओशो
Monday, November 16, 2015
“आतंकवाद ! जिम्मेदार कौन?” – ओशो
आतंकवाद की घटना निश्चित रूप से उस सबसे जुड़ी है, जो समाज में हो रहा है। समाज बिखर रहा है। उसकी पुरानी व्यवस्था, अनुशासन, नैतिकता, धर्म सब कुछ गलत बुनियाद पर खड़ा मालूम होता है। लोगों की अंतरात्मा पर अब उसकी कोई पकड़ नहीं रही।आतंकवाद का मतलब इतना ही है कि लोग मानते हैं कि मनुष्य को नष्ट करने से कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो अविनाशी है, बस पदार्थ ही पदार्थ है। और पदार्थ को नष्ट नहीं किया जा सकता, सिर्फ उसका आकार बदला जा सकता है। एक बार मनुष्य को केवल पदार्थ का संयोजन माना गया और उसके भीतर के आध्यात्मिक तत्व को कोई स्थान नहीं दिया गया तो मारना एक खेल हो जाता है।इस धरती पर आणविक अस्त्रों का अंबार लगा हुआ है, और क्या आपको खयाल है कि आणविक अस्त्रों की वजह से राष्ट्र असंगत हो गए हैं? आणविक अस्त्रों की ताकत इतनी बड़ी है कि कुछ ही क्षणों में पूरे भूगोल को नष्ट किया जा सकता है।यदि पूरा विश्व एक साथ कुछ मिनटों में नष्ट किया जा सकता है तो विकल्प यह है कि पूरा विश्व एक हो जाए। अब वह बँटा हुआ नहीं रह सकता। उसका अलग रहना खतरनाक है, क्योंकि देश अलग रहे तो किसी भी क्षण युद्ध हो सकता है। अब देशों की सीमाएँ बर्दाश्त नहीं की जा सकतीं। सब कुछ स्वाहा करने के लिए सिर्फ एक युद्ध काफी है। और यह समझने के लिए मनुष्य के पास बहुत वक्त नहीं है कि हम ऐसा संसार बनाएँ, जहाँ युद्ध की संभावना ही न रहे।
आतंकवाद की बहुत सी अंतरधाराएँ हैं। एक तो, आणविक अस्त्रों का निर्माण करने की पागल दौड़ में सभी राष्ट्र अपनी-अपनी शक्ति उस दिशा में उड़ेल रहे हैं। पुराने अस्त्र तिथिबाह्य(out of date) होते जा रहे हैं। वे राष्ट्रीय स्तर पर तिथिबाह्य तो हुए हैं लेकिन निजी तौर पर व्यक्ति उनका इस्तेमाल कर सकते हैं। और आप एक अकेले व्यक्ति के खिलाफ तो आणविक अस्त्रों का उपयोग नहीं कर सकते।यह बिलकुल मूढ़तापूर्ण होगा। अगर एक अकेला आतंकवादी बम फेंकता है तो क्या आप उस पर एक मिसाइल बरसाएँगे? मेरा मुद्दा यह है कि आणविक अस्त्रों ने व्यक्तियों को पुराने अस्त्रों का उपयोग करने की स्वतंत्रता दी है। यह स्वतंत्रता अतीत में संभव नहीं थी, क्योंकि सरकारें भी उन्हीं शस्त्रों का प्रयोग कर रही थीं। आतंकवाद के लिए अमीर देश जिम्मेदार हैं।
अब सरकारें पुराने अस्त्र -स्त्रों को नष्ट करने में लगी हैं, उन्हें समुंदर में फेंक रही हैं, गरीब देशों को बेच रही हैं, जो नए अस्त्र नहीं खरीद सकते। और सभी आतंकवादी उन गरीब देशों से आ रहे हैं, जो नए अस्त्र खरीदने की हैसियत नहीं रखते। उन्हें जो अस्त्र बेचे गए हैं, उनके द्वारा ही वे हमला करते हैं। और उनके साथ एक अजीब सुरक्षा है। आप उन पर आणविक अस्त्र या बम फेंक नहीं सकते।आतंकवाद विकराल रूप धारण करने वाला है। और उसका कारण अति विचित्र है, वह यह कि अब तीसरा विश्व युद्ध नहीं होगा। और मूढ़ राजनीतिकों के पास कोई विकल्प नहीं है। आतंकवाद का मतलब है कि अब तक जो सामाजिक रूप से किया जा रहा था, अब व्यक्तिगत तल पर होगा। यह और बढ़ेगा। यह तभी बदलेगा, जब हम आदमी की समझ को जड़ से बदलेंगे, जो कि हिमालय लाँघने जैसा दुरूह काम है। क्योंकि वे ही लोग जिन्हें तुम बदलना चाहोगे, तुमसे लड़ेंगे। वे आसानी से बदलना नहीं चाहेंगे।
आदमी के अंदर बसा हुआ प्राचीन शिकारी युद्ध में संतुष्ट हो जाता था। अब युद्ध की संभावना न रही, और शायद अब कभी नहीं होगा। उस शिकारी ने पुनः सिर उठाया है, और सामूहिक रूप से हम लड़ नहीं सकते। तो एक ही रास्ता बचा रू हर व्यक्ति अपनी दबी हुई भाप को निकाले।चीजें अंतर्संबंधित हैं। सबसे पहली बात बदलनी है वह है, मनुष्य को उत्सव की कला सिखानी चाहिए। इसे सारे धर्मों ने मार डाला है। जो असली मुजरिम हैं, उन्हें तो गिरफ्तार नहीं किया जाता। ये आतंकवादी और अन्य अपराधी तो शिकार हैं, ये तो तथाकथित धर्म हैं जो वास्तविक मुजरिम हैं, क्योंकि उन्होंने मनुष्य की आनंद की सारी संभावना को ही नष्ट कर डाला है। उन्होंने जीवन की छोटी-छोटी खुशियों का मजा लेने की संभावना को ही जला दिया।
उन्होंने उस सब को निंदित कर दिया जो प्रकृति ने तुम्हें आनंदित होने के लिए दिया है| जिससे तुम उत्तेजित होते हो , प्रसन्न होते हो। उन्होंने सब कुछ छीन लिया। और कुछ चीजें ऐसी हैं, जिन्हें वे नहीं छीन सकते क्योंकि वे तुम्हारी जैविकी का हिस्सा हैं| जैसे कि सेक्स, उन्होंने इसे इतना निंदित किया कि वह विषाक्त हो गया है।जो व्यक्ति सुविधा में या ऐशो-आराम में जी रहा है, वह कभी आतंकवादी नहीं हो सकता। धर्मों ने ऐश्वर्य की निंदा की और गरीबी की प्रशंसा की। अब धनी आदमी कभी आतंकवादी नहीं हो सकता। सिर्फ गरीब, जो कि “धन्यभागी हैं”| वे ही आतंकवादी हो सकते हैं। उनके पास खोने को कुछ नहीं है । और वे समूचे समाज के खिलाफ उबल रहे हैं, क्योंकि सभी उच्च वर्ग के पास वे चीजें हैं, जो इनके पास नहीं हैं।
लोग भय में जी रहे हैं, नफरत में जी रहे हैं, आनंद में नहीं। अगर हम मनुष्य के मन का तहखाना साफ कर सकें…और उसे किया जा सकता है।
ध्यान रहे, आतंकवाद बमों में नहीं हैं, किसी के हाथों में नहीं है, वह तुम्हारे अवचेतन में है। यदि इसका उपाय नहीं किया गया तो हालात बदतर से बदतर होते जाएँगे। और लगता है कि सब तरह के अंधे लोगों के हाथों में बम हैं। और वे अंधाधुंध फेंक रहे हैं। हवाई जहाजों में, बसों और कारों में, अजनबियों के बीच… अचानक कोई आकर तुम पर बंदूक दाग देगा। और तुमने उसका कुछ बिगाड़ा नहीं था।
तो व्यक्तिगत हिंसा में वृद्धि होगी…हो ही रही है। और तुम्हारी सरकारें और तुम्हारे धर्म नई स्थिति को समझे बगैर पुरानी रणनीतियों को अपनाए चले जाएँगे। नई स्थिति यह है कि प्रत्येक मनुष्य को आतंरिक चिकित्सा से गुजरना जरूरी है, उसे अपने अवचेतन उद्देश्यों को समझना जरूरी है। प्रत्येक को ध्यान करना आवश्यक है ताकि वह शांत हो जाए, उसकी तल्खी ठंडी हो जाए और वह संसार को नए परिप्रेक्ष्य से देखे, मौन से सराबोर हो जाए।
– ओशो —
Sunday, November 15, 2015
कस्तूरी कुंडल बसै!:-- ओशो
ध्यान का पहला सूत्र है जिसे तुम खोजने चले हो, वह खोजनेवाले में छिपा है। कस्तूरी कुंडल बसै। यह ध्यान के पाठ का प्रारंभ है कि पहले अपने घर को टटोल लो। आनंद को खोजने चले हो? जगत बहुत बड़ा है। पहले घर में खोज लो, वहां न मिले, तो फिर जगत में खोजना। कहीं ऐसा न हो कि आनंद की राशि घर में लगी रहे और तुम जगत में खोजते फिरो। अकसर ऐसा ही होता है। ऐसा ही हुआ है।
हम खोज रहे हैं, मिलता भी नहीं है वहां, तो हम और दूर निकलते जाते हैं खोज में। जितना ही पाते हैं कि मिलना नहीं हो रहा है, उतनी ही हमारी खोज बेचैन और विक्षिप्त होती जाती है। जितना ही हम पाते हैं कि दौड़कर नहीं पहुंच रहे हैं, हम दौड़ को और बढ़ाये जाते हैं। हमारे मन का तर्क कहता है कि शायद ठीक से नहीं दौड़ रहे, शायद जितनी शक्ति से दौड़ना चाहिए उतनी शक्ति से नहीं दौड़ रहे हैं। और दौड़ो, और उपाय करो; सारे लोग बाहर दौड़े जा रहे हैं, तो होगा तो जरूर बाहर, इतने लोग गलत थोड़े ही हो सकते हैं!
हम जिस भीड़ में पैदा होते हैं, जन्म से ही हम पाते हैं कि भीड़ भागी जा रही है किसी के साथ। हम भी भीड़ के हिस्से हो जाते हैं। कोई धन खोज रहा है, कोई पद खोज रहा है, कोई यश खोज रहा है। लेकिन खोज बाहर है, सभी की बाहर है, तो हम भी उसमें लग जाते हैं, संलग्न हो जाते हैं। मनुष्य का मन भीड़ से चलता है। भीड़ का एक मनोविज्ञान है। तुम जहां बहुत लोगों को जाते देखते हो, तुम भी चल पड़ते हो। अनजाने यह बात स्वीकृत कर ली गयी है कि जहां इतने लोग जा रहे हैं, वह ठीक ही जा रहे होंगे।
इसीलिए तो दुनिया में बहुत-सी धारणाएं भी सदियों तक चलती हैं। पता भी चल जाता है कि गलत हैं, तो भी चलती हैं, क्योंकि भीड़ जब तक उन्हें न छोड़ दे तब तक नये लोग आते हैं और पुरानी धारणाओं को पकड़ते चले जाते हैं। जब तक भीड़ उन्हें पकड़े है तब तक नये बच्चे भी उन्हें पकड़ लेंगे, क्योंकि बच्चे तो अनुकरण करते हैं। हम सब अनुकरण में हैं।
इसलिए अलग-अलग संस्कृति, अलग-अलग समाज में, अलग-अलग चीजें मूल्यवान हो जाती हैं। किसी समाज में धन का बहुत मूल्य है। जैसे अमेरिका। तो अमेरिका में जो भीड़ है, वह धन की दीवानी है। और सब चीजें गौण हैं, धन प्रमुख है। हर चीज धन से खरीदी जा सकती है। इसलिए धन को पा लो। जिन समाजों में त्याग का बड़ा मूल्य रहा है उन समाजों में सदियों तक लोगों ने त्याग किया है। क्योंकि त्याग को सम्मान था। बचपन से ही व्यक्ति सुनता है त्याग की महिमा, उसके मन में भी भाव जगने शुरू होते हैं–यही मैं भी करूं।
भारत में ऐसा हुआ। सदियों तक त्याग की महिमा रही। उस त्याग की महिमा के कारण करोड़ों लोग त्यागी बने। लेकिन त्यागी बन जाओ कि धन की दौड़ में पड़ जाओ, कोई फर्क नहीं है, अनुकरण जारी है। जैसे पुराने दिनों में महात्मा का प्रभाव था और हर एक व्यक्ति महात्मा बनना चाहता था, वैसे अब अभिनेता का प्रभाव है। हर एक व्यक्ति अभिनेता बनना चाहता है। कोई फर्क नहीं पड़ा आदमी में
तुम यह मत समझना कि पहले जो आदमी महात्मा बनना चाहते थे, वे बड़े महात्मा थे। कुछ फर्क नहीं है। वह उस भीड़ का मनोविज्ञान था, यह इस भीड़ का मनोविज्ञान है। उस दिन महात्मा पूज्य था, समादृत था, उसकी प्रतिष्ठा थी। महात्मा बनने में अहंकार की तृप्ति थी। अब अभिनेता बनने में अहंकार की तृप्ति है। बात वही की वही है
क्रांति तो तब घटती है जब तुम भीड़ से हटते हो। जब तुम कहते हो, अनुकरण अब मैं न करूंगा। अब मैं अपने से सोचूंगा। तुम लाख दोहराओ, तुम करोड़ हो तो भी कोई फिकिर नहीं, मैं अपनी सुनूंगा, मैं अपनी अंतरात्मा की सुनूंगा। मैं अपने हृदय की वाणी से चलूंगा
जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी वाणी को सुनना शुरू करता है, वैसे ही समझ में ध्यान का सूत्र पड़ने लगता है। ध्यान के सूत्र का अर्थ है, जिसे हम खोजते हैं, वह कुछ भी क्यों न हो, उसे हम पहले अपने घर तो खोज लें।
जिनसूत्र
ओशो
ब्राह्म्ण भी ब्राह्मण नहीं है, हरिजन भी हरिजन नहीं हैं।:-- ओशो
ब्राह्मण कोई जन्म से नहीं होता। और जिन्होंने समझ लिया है कि वे जन्म से ब्राह्मण हैं, उनसे ज्यादा भ्रांत और कोई भी नहीं। उनकी स्थिति तो शूद्रों से भी गयी बीती है। शूद्र को कम से कम यह तो ख्याल है कि मै शूद्र हूं। महात्मा गांधी जैसे लोगों ने उसका भी ख्यालमिटाने की कोशिश की है। उसको भी कहा कि हरिजन है तू, शूद्र नहीं। जैसे ब्राह्मण की भ्रांति है कि जन्म से ब्राह्मण, ऐसे अब शूद्र को भी भ्रांति पैदा करवा दी है भले भले लोगों ने, जिनको तुम महात्मा कहते हो कि तू हरिजन है। हरिजन ब्राह्मण का ही दूसरा नाम हुआ। जिसने हरि को जाना वह हरिजन, जिसने ब्रह्म को जाना वह ब्रह्म, वह ब्राह्मण। हरिजन कह दिया, उसको एक भ्रांति चलती ही थी कि कुछ लोग जन्म से ब्राह्मण हैं, एक दूसरी भ्रांति पैदा करवा दी कि कुछ लोग जन्म से हरिजन हैं। अब हरिजन अकड़े हैं। क्योंकि उनको भी अहंकार जगा है ब्राह्मण होने का। ब्राह्म्ण भी ब्राह्मण नहीं है, हरिजन भी हरिजन नहीं हैं।
मुझसे अगर तुम पूछो तो मैं कहूंगा हम सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं। जन्म से तो हम सब शूद्र होते है न कोई ब्राह्मण होता न कोई वैश्य होता, न कोई क्षत्रिय होता, न कोई हरिजन होता। जन्म से तो हम सब शुद्र होते हैं क्योंकि जन्म से हम सब अज्ञानी होते हैं। फिर जन्म के बाद हम क्या यात्रा करेंगे इस पर निर्भर करेगा। सौ में निन्यानबे लोग तो शूद्र ही रह जाएंगे। सद्गुरु को न पकड़ेंगे तो शूद्र ही रह जाएंगे। सौ में से एकाध ब्राह्मण हो पाएगा। एकाध भी हो जाए तो बहुत। एकाध भी हो जाए तो काफी।
और सबसे बड़ी जो बाधा है वह यह कि हम जन्म के साथ ही मान लेते हैं कि ब्राह्मण हैं। बस, वहीं चूक हो गयी। जैसे बीमार आदमी मान ले कि मैं स्वस्थ हूं, तो क्यों इलाज करवाये? क्यों चिकित्सक के पास जाए? क्यों निदान करवाये? क्यों औषधि ले? बीमार आदमी मान ले कि मैं स्वस्थ हूं, बात खत्म हो गयी। ब्राह्मण तो बीमार था सदियों से, इधर महात्मा गांधी की कृपा से शूद्र भी बीमार हो गया है। उसको भी हरिजन होने की अस्मिता छायी जा रही है। यह जो हिन्दुओं और हरिजनों के बीच जगह जगह संघर्ष हो रहा है, इसमें सिर्फ ब्राह्मणों का हाथ नहीं है, ख्याल रखना, इसमें हरिजनों में पैदा हो गयी अकड़ का भी हाथ है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जो हो रहा है वह ठीक हो रहा है। ब्राह्मण जो कर रहे हैं वह तो बिलकुल गलत है, पाप है। मगर लोग अगर यह सोचते हों कि उसमें सिर्फ ब्राह्मणों का हाथ. है, तो गलत बात है, उसमें हरिजन में जो अकड़ पैदा हो गयी है हरिजन होने की, उसका भी बड़ा हाथ है। और स्वभावत: ब्राह्मण तो गलत रहा है सदियों सदियों से, इसलिए उसकी अकड़ तो बहुत पुरानी है, मगर ख्याल रखना, नया मुसलमान जोर से नमाज पढ़ता है। और नया मुसलमान रोज मस्जिद जाता है, पुराना मुसलमान कभी चूक चाक भी जाए। नये मुसलमान की अकड़ बहुत होती है।
तौ जो पागलपन धीरे धीरे ब्राह्मणों में तो खून में मिल गया था, जिसका उन्हें सीधा साधा बोध भी नहीं रह गया था, वह नया पागलपन हरिजनों में भी छा गया है। और उनका नया नया है। और नये रोग खतरनाक होते हैं; उनका आघात खतरनाक होता है। वे बड़ी अकड़ से चल रहे हैं। वे हर चीज में अकड़ खड़ी करते हैं। वह कहता है, हमें मंदिर में जाने दो।
अब बड़े मजे की बात है, महात्मा गांधी जीवन भर कोशिश किये कि हरिजनों को मंदिर में प्रवेश मिलना चाहिए। और महात्मा गांधी को इतनी भी समझ न आयी कि जो मंदिर में बैठे जन्मों जन्मों से पूजा कर रहे हैं उनको क्या खाक कुछ मिला है! जब ब्राह्मणों को ही पूजा करते करते कुछ नहीं मिला तो ये गरीब हरिजनों को भी उन्हीं मंदिरों में प्रवेश करवाने से क्या मिल जाने वाला है? अगर मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा हरिजनों, भूलकर भी मंदिरों में मत जाना। जो मंदिरों में हैं उनको ही कुछ नहीं मिला, तुम अब इस झंझट में कहां पड़ रहे हो! तुम परमात्मा को विराट आकाश में खोजो, इन दीवालों में बद परमात्मा नहीं है।
लेकिन, नहीं महात्मा गांधी समझा रहे थे कि महाक्रांति है। हरिजनों को मंदिरों में प्रवेश दिलवा देने से महाक्रांति हो जाएगी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तो मंदिरों में बैठे ही हुए थे, इनकी जिंदगी में कौनसी क्रांति हो गयी? इनकी जिंदगी कूड़ा करकट है, उसी में तुम हरिजनों को भी सम्मिलित कर दो। और उस कूड़ा करकट होने के लिए वे दीवाने हो गये। दंगे फसाद शुरू हो गये।
इस दुनिया में रोग पैदा करवा देना बड़ा आसान है। महात्मा गांधी धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं, राजनैतिक व्यक्ति हैं, उन्होंने हरिजनों का उपयोग राजनैतिक चालबाजी की तरह कर लिया। हरिजन शब्द पुराना है, कोई महात्मा गांधी की अपनी ईजाद नहीं। लेकिन हरिजन हम कहते थे उसको जो हरि का था। नानक, कबीर, दादू, भीखा, ये हरिजन थे। राबिया, मीरा, सहजो, ये हरिजन थे।
हरिजन बड़ी ऊंची बात है। उसका ठीक वही अर्थ है जो ब्राह्मण का। क्योंकि ब्राह्मण का अर्थ मर गया था धीरे धीरे और शब्द थोथा हो गया था जन्म के साथ जुड़ गया था, इसलिए संतों ने हरिजन खोजा। गांधी ने उस शब्द की भी हत्या कर दी, उसको भी मार डाला।
ऐसे ही विनोबा ने सर्वोदय शब्द की हत्या कर दी। वह भी पुराना शब्द है, कोई सोलह सौ साल पुराना शब्द है। सबसे पहले जैन शास्त्रों में उसका उल्लेख हुआ है। अमृतचन्द्राचार्य ने सबसे पहले उसका उल्लेख किया है सर्वोदय, और बड़ा प्यारा उल्लेख किया है। खराब कर दिया विनोबा ने।
राजनीतिज्ञों के हाथ में असली सिक्के भी चले जाएं तो खोटे हौ जाते हैं। दुष्ट संगति का बुरा प्रभाव पड़ता है। अमृतचन्द्राचार्य ने सर्वोदय की व्याख्या की है समाधि को उपलब्ध वे लोग, जिनके प्राणों में सबके उदय की आकांक्षा है। सबके उसमें पत्थर, पौधे, पशु, पक्षी, मनुष्य, सब सम्मिलित हैं। जिनके भीतर समस्त अस्तित्व को समाधि की तरफ ले जाने की महत्वाकांक्षा जगी है, वे सर्वोदयी है।
और आजकल का सर्वोदयी? जिसको विनोबाजी सर्वोदयी कहते हैं, वह क्या है? वह केवल राजनीति के सोपान चढ़ रहा है। सर्वोदय से शुरू करता है क्योंकि सर्वोदय से ही शुरू करना आसान है। किसी की गर्दन दबानी हो तो पैर दबाने से शुरू करना, ख्याल रखना, गणित ऐसा है, एकदम गर्दन दबाओगे तो किसी की दबा न पाओगे। पहले पैर दबाना। पैर दबवाने को तो कोई भी राजी हो जाएगा। फिर धीरे धीरे ऊपर बढ़ते जाना, फिर गर्दन दबा देना।
सर्वोदय एक राजनैतिक चालबाजी है। और इसलिए जयप्रकाश नारायण प्रगट होकर रहे। जीवन दान दिया था सर्वोदय के लिए, मगर जीवन का अत हो रहा है इस देश के सबसे गर्हित राजनीतिज्ञों के बीच में।
सुंदर शब्द भी गलत लोगों के हाथ में पड़कर असुंदर हो जाते हैं। ब्राह्मण शब्द बड़ा प्यारा है, अलौकिक है ब्रह्म को जो जाने। बुद्ध ने भी यही परिभाषा की है ब्रह्म को जो जाने, ब्रह्म मे जो रत हो।
गुरु प्रताप साध की संगती
ओशो
ध्यान तुम्हें असली केंद्र देता है :-- ओशो
अगर तुम खोजोगे तो अंहकार कहीं नहीं मिलेगा। अगर तुम भीतर जाओगे, अगर तुम खोजोगे, तो तुम्हें वह कहीं नहीं मिलेगा। वह कभी था ही नहीं। मन एक झूठा परिपूरक है, भ्रांति है। उसकी थोड़ी उपयोगिता है; इसीलिए तुमने उसकी ईजाद कर ली है। क्योंकि तुम अपने असली होने को, अपने सच्चे केंद्र को नहीं जानते हो और केंद्र के बिना काम नहीं चल सकता है, इसलिए तुम ने एक काल्पनिक केंद्र निर्मित कर लिया है। और तुम उससे अपना काम चला लेते हो।
असली केंद्र का तुम्हें पता नहीं है, इसलिए तुमने एक झूठा केंद्र निर्मित कर लिया है। अहंकार एक झूठा केंद्र है, कामचलाऊ केंद्र है। केंद्र के बिना जीना कठिन है, काम चलाना कठिन है। तुम्हें काम चलाने के लिए एक केंद्र की जरूरत है। और तुम अपने असली केंद्र को नहीं जानते हो, इसलिए मन ने एक झूठा केंद्र निर्मित कर लिया है। मन परिपूरक निर्मित करने में, सब्स्टिटूयट बनाने में बहुत कुशल है। वह सदा परिपूरक चीजें तुम्हें पकड़ा देता है अगर तुम असली को न पा सके । अन्यथा तुम विक्षिप्त हो जाओगे। केंद्र के बिना तुम पागल हो जाओगे, खंड खंड हो जाओगे, कोई एकता नहीं रह जाएगी। इसलिए मन झूठा केंद्र निर्मित कर लेता है।
स्वप्न में ऐसा ही होता है। तुम्हें प्यास लगी है। अब अगर यह प्यास तीव्र हो जाए तो नींद में बाधा पड़ेगी, तुम्हें पानी पीने के लिए उठना पडेगा। अब तुम्हारा मन सल्लीटयूट निर्मित करेगा; वह एक स्वप्न निर्मित करेगा। अब तुम्हें उठना नहीं पड़ेगा; अब नींद में कोई बाधा नहीं होगी। तुम स्वप्न देखते हो कि तुम पानी पी रहे हो; तुम फ्रिज से पानी निकाल कर पी रहे हो। मन ने तुम्हें परिपूरक दे दिया, अब तुम निश्चित हो। असली प्यास बुझी नहीं है, बस धोखा दिया गया है। लेकिन अब तुम्हें लगता है कि मैंने पानी पी लिया। अब तुम सो रह सकते हो, तुम्हारी नींद अबाधित जारी रह सकती है।
सपनों में तुम्हारा मन निरंतर तुम्हें परिपूरक चीजें देता रहता है, ताकि तुम्हारी नींद न टूटे। और वही बात तुम्हारे जागते में भी होती है। मन तुम्हें विक्षिप्तता से बचाने के लिए परिपूरक देता रहता है; अन्यथा तुम खंड खंड हो जाओगे, बिखर जाओगे।
जब तक असली केंद्र का पता नहीं चलता, अहंकार की जरूरत रहेगी। और जब असली केंद्र जान लिया गया तो पानी के बारे में सपना देखने की जरूरत नहीं रहती है। ध्यान तुम्हें असली केंद्र देता है। और उसके साथ ही झूठे केंद्र की उपयोगिता समाप्त हो जाती है।
लेकिन यह बात ध्यान में आनी जरूरी है कि अहंकार तुम्हारा असली केंद्र नहीं है, तो ही तुम सत्य की खोज आरंभ कर सकते हो। और अध्यात्म अहंकार का रूपांतरण नहीं है; वह रूपांतरित नहीं हो सकता। वह असत्य है, वह है ही नहीं, तुम उसके साथ कुछ नहीं कर सकते हो। अगर तुम बोधपूर्ण हो, सजग हो, अगर तुम अपने भीतर उसका निरीक्षण करते हो, तो अहंकार विलीन हो जाता है। तुम्हारे बोध के प्रकाश में वह नहीं पाया जाता है। अध्यात्म अतिक्रमण है।
तंत्र सूत्र
ओशो
कृष्ण और जीवन का पूरा स्वीकार:-- ओशो
नीत्शे का एक बहुत कीमती वचन है। नीत्शे ने कहा है कि जिस वृक्ष को आकाश की ऊंचाई छूनी हो, उसे अपनी जड़ें पाताल की गहराई तक पहुंचानी पड़ती हैं। और अगर कोई वृक्ष अपनी जड़ों को पाताल तक पहुंचाने से डरता है, तो उसे आकाश तक पहुंचने की आकांक्षा भी छोड़ देनी पड़ती है। असल में जितनी ऊंचाई, उतने ही गहरे भी जाना पड़ता है। जितना ऊंचा जाना हो उतना ही नीचे भी जाना पड़ता है। नीचाई और ऊंचाई दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज के दो आयाम हैं और वे सदा समानुपाती हैं, एक ही अनुपात में बढ़ते हैं।
मनुष्य के मन ने सदा चाहा कि वह चुनाव कर ले। उसने चाहा कि स्वर्ग को बचा ले और नर्क को छोड़ दे। उसे चाहा कि शांति को बचा ले, तनाव को छोड़ दे। उसने चाहा शुभ को बचा ले, अशुभ को छोड़ दे। उसने चाहा प्रकाश ही प्रकाश रहे, अंधकार न रह जाए। मनुष्य के मन ने अस्तित्व को दो हिस्सों में तोड़कर एक हिस्से का चुनाव किया और दूसरे का इनकार किया। इससे द्वंद्व पैदा हुआ, इससे द्वैत हुआ। कृष्ण दोनों को एक-साथ स्वीकार करने के प्रतीक हैं। और जो दोनों को एक-साथ स्वीकार करता है, वही पूर्ण हो सकता है। नहीं तो अपूर्ण ही रह जाएगा। जितने को चुनेगा, उतना हिस्सा रह जाएगा; और जिसको इनकार करेगा, सदा उससे बंधा रहेगा। उससे बाहर नहीं जा सकता है। जो व्यक्ति काम का दमन करेगा, उसका चित्त कामुक-से-कामुक होता चला जाएगा। इसलिए जो संस्कृति, जो धर्म काम का दमन सिखाता है, वह संस्कृति कामुमता पैदा करवाती है।
काश कृष्ण को माना जा सका होता, तो शायद दुनिया से कामुकता विदा हो गई होती। लेकिन कृष्ण को नहीं माना जा सका। बल्कि हमने न मालूम कितने-कितने रूपों में कृष्ण के उन हिस्सों का इनकार किया जो काम की स्वीकृति हैं। लेकिन अब यह संभव हो जाएगा, क्योंकि अब हमें दिखाई पड़ना शुरू हुआ है कि काम की ऊर्जा, वह जो “सेक्स एनर्जी है, वही ऊर्ध्वगमन करके ब्रह्मचर्य के उच्चतम शिखरों को छू पाती है। जीवन में किसी से भागना नहीं है और जीवन में किसी को छोड़ना नहीं है, जीवन को पूरा ही स्वीकार करके जीना है। उसको जो समग्रता से जीता है वह जीवन की पूर्णता को उपलब्ध होता है। इसलिए मैं कहता हूं कि भविष्य के संदर्भ में कृष्ण का बहुत मूल्य है और हमारा वर्तमान रोज उस भविष्य के करीब पहुंचता है जहां कृष्ण की प्रतिमा निखरती जाएगी और एक हंसता हुआ धर्म, एक नाचता हुआ धर्म जल्दी निर्मित होगा। तो उस धर्म की बुनियादों में कृष्ण का पत्थर जरूर रहने को है।
कृष्ण स्मृति
ओशो
Thursday, November 12, 2015
भेड़ मत बनो, सिंह बनो :- ओशो
भेड़ें भीड़ में चलती हैं। शायद इसीलिए भेड़ें कहलाती हैं: भीड़ में चलती हैं। भेड़ मत बनो, सिंह बनो। सिंहो के नहीं लेहड़े! सिंहों की भीड़ नहीं होती। सिंह अकेला चलता है। लेकिन कभी कभी सिंह को भी भूल जाता है कि मैं सिंह हूं। ऐसा हुआ एक बार।
एक सिंहनी ने जन्म दिया बच्चे को। छलांग लगा रही थी एक पहाड़ी से कि बीच में ही बच्चे का जन्म हो गया। वह तो छलांग लगाकर चली भी गई। बच्चा भेड़ों की एक भीड़ में गिर गया। भेड़ें गुजरती थीं नीचे से। बच्चा उन्हीं में बड़ा हुआ। ऊंचा उठ गया भेड़ों से बहुत। सिंह ही था लेकिन घास पात चरता। शाकाहारी! शुद्ध शाकाहारी! भेड़ों जैसा ही मिमियाता, रोता। जिनके साथ रहा वैसा ही हो गया। हिंदू घर में पैदा हुए हिंदू हो गए। मुसलमान घर में पैदा हुए, मुसलमान हो गए। अब सिंह का बच्चा भी क्या करे बेचारा! भेड़ों के घर में पड़ गया, उन्हीं का धर्म सीखा। उन्हीं की किताब पढ़ी, उन्हीं की भाषा सीखा। उन्हीं का डर भी सीख गया। अगर कोई सिंह की गर्जना होती, भेड़ें भागतीं वह भी भागता; जान लेकर भागता। उसे याद ही न आयी कभी कि मैं सिंह हूं। आती भी कैसे? किसी सिंह का कभी सामना भी न हुआ।
एक दिन अड़चन ऐसी हो गई। एक बूढ़े सिंह ने हमला किया भेड़ों पर। वह तो हमला करके चकित हो गया। जब उसने देखा कि एक सिंह भेड़ों के बीच में घरस पसर भागा जा रहा है मिमियाता, रिरियाता, रोता। बूढ़े सिंह को तो भूल ही गई अपनी भूख। भेड़ों को पकड़ने की तो बात ही छोड़ दी उसने। उसको तो यह चमत्कार समझ में नहीं आया कि यह हो क्या रहा है। भेड़ें भी उससे घसर पसर चल रही हैं। कोई डरा हुआ नहीं है। वह अलग ऊपर उठा दिख रहा है। सिंह सिंह है।
बूढ़ा सिंह भागा, बामुश्किल पकड़ पाया उस सिंह को। जवान सिंह था लेकिन पकड़ ही लिया बूढ़े ने। रोने लगा, रिरियाने लगा जवान सिंह। माफी मांगने लगा : मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो। मुझे मेरे साथियों के साथ जाने दो।मगर बूढ़े ने भी जिद की। उसे पकड़कर नदी के किनारे ले गया। कहा, झांक! देख अपने दोनों चेहरे। दोनों झुके, एक क्षण में क्रांति हो गई। जवान सिंह ने नीचे देखा कि मैं तो सिंह हूं। ठीक बूढ़े सिंह जैसा मेरा भी चेहरा है। वही मेरा रूप, वही मेरा ढंग। एक क्षण में हुंकार निकल गई। पहाड़ कंप गए ऐसी हुंकार! क्योंकि जन्म भर की दबी हुई हुंकार थी; प्रगाढ़ होकर निकली होगी। बूढ़े सिंह ने कहा, अब तू जान। मेरा काम पूरा हो गया।इतना ही काम गुरु का है, इससे ज्यादा नहीं। कि तुम्हें झुकाकर दिखा दे कि जैसे हो वैसा ही मैं हूं, मैं जैसा हूं वैसे ही तुम हो। स्वरूपतः हम भिन्न नहीं हैं। तुम सिंह हो और तुम्हारी हुंकार पैदा हो जाए, बस काम पूरा हो गया। फिर तुम चलोगे अपनी राह। फिर तुम अपने ही पगों से अपनी राह बनाओगे।
नाम सुमीर मन बाँवरे
ओशो
Sunday, November 8, 2015
विज्ञान भैरव तंत्र:- तंत्र-सूत्र—भाग-१, तंत्र-सूत्र—विधि-14 प्रवचन-9(ओशो)
तंत्र-सूत्र—विधि-14 (ओशो)
Posted on जून 2, 2012by sw anand prashad
दूसरे सूत्र के साथ भी यही तरकीब, वही वैज्ञानिक आधार, यही प्रक्रिया काम करती है:
तंत्र-सूत्र—विधि-14 (विज्ञान भैरव तंत्र; ओशो)
अपने पूरे अवधान को अपने मेरुदंड के मध्य में कमल-तंतु सी कोमल स्नायु में स्थित करो। और इसमे रूपांतरित हो जाओ।
इस सूत्र के लिए, ध्यान की इस विधि के लिए तुम्हें अपनी आंखे बंद कर लेनी चाहिए। और अपने मेरुदंड को, अपनी रीढ़ की हड्डी को देखना चाहिए, देखने का भाव करना चाहिए। अच्छा हो कि किसी शरीर शास्त्र की पुस्तक में या किसी चिकित्सालय या मेडिकल कालेज में जाकर शरीर की संरचना को देखो-समझ लो, तब आंखे बंद करो और मेरुदंड पर अवधान लगाओ। उसे भीतर की आँखो से देखो और ठीक उसके मध्य से जाते हुए कमल तंतु जैसे कोमल स्नायु का भाव करो।
‘’और इसमे रूपांतरित हो जाओ।‘’
अगर संभव हो तो इस मेरुदंड पर अवधान को एकाग्र करो और तब भीतर से, मध्य से जाते हुए कमल तंतु जैसे स्नायु पर एकाग्र होओ। और यही एकाग्रता तुम्हें तुम्हारे केंद्र पर आरूढ़ कर देगी। क्यों?
मेरुदंड तुम्हारी समूची शरीर-संरचना का आधार है। सब कुछ उससे संयुक्त है, जुड़ा हुआ है। सच तो यह है कि तुम्हारा मस्तिष्क इसी मेरुदंड का एक छोर है। शरीर शास्त्री कहते है कि मस्तिष्क मेरुदंड का ही विस्तार है। तुम्हारा मस्तिष्क मेरुदंड को विकास है। और तुम्हारी रीढ़ तुम्हारे सारे शरीर से संबंधित है, सब कुछ उससे संबंधित है। यही कारण है कि उसे रीढ़ कहते है। आधार कहते है।
इस रीढ़ के अंदर एक तंतु जैसी चीज है। लेकिन शरीर शास्त्री इसके संबंध में कुछ नहीं कह सकते। यह इसलिए कि यह पौदगलिक नहीं है। इस मेरुदंड में, इसके ठीक मध्य में एक रजत-रज्जु है, एक बहुत कोमल नाजुम स्नायु है। शारीरिक अर्थ में वह स्नायु भी नहीं है। तुम उसे काट-पीट कर नहीं निकाल सकते। वह वहां नहीं मिलेगा। लेकिन गहरे ध्यान में वह देखा जाता है। यह है, लेकिन वह अपदार्थ है, अवस्तु है। वह पदार्थ नहीं, उर्जा है। और यथार्थत: तुम्हारे मेरुदंड की वही ऊर्जा-रज्जु तुम्हारा जीवन है। उसके द्वारा ही तुम अदृश्य अस्तित्व के साथ संबंधित हो। वही दृश्य और अदृश्य के बीच सेतु है। उस तंतु के द्वारा ही तुम अपने शरीर से संबंधित हो, और उस तंतु के द्वारा ही तुम आत्मा से संबंधित हो।
तो पहल तो मेरुदंड की कल्पना करो, उसे मन की आंखों से देखो। और तुम्हें अद्भुत अनुभव होगा। अगर तुम मेरुदंड का मनोदर्शन करने की कोशिश करोगे, तो यह दर्शन बिलकुल संभव है। और अगर तुम निरंतर चेष्टा में लगे रहे, तो कल्पना में ही नहीं, यथार्थ में भी तुम अपने शरीर से संबंधित हो, और उस तंतु के द्वारा ही तुम आत्मा से संबंधित हो।
मैं एक साधक को इस विधि का प्रयोग करवा रहा था। मैंने उसे शरीर-संस्थान का एक चित्र देखने को दिया। ताकि वह उसके जरिए अपने भीतर के मेरुदंड को मन की आंखों से देखने में समर्थ हो सके। उसने प्रयोग शुरू किया और सप्ताह भर के अंदर आकर उसने मुझसे कहा, आश्चर्य की बात है कि मैने आपके दिए चित्र को देखने की कोशिश की, लेकिन अनेक बार वह चित्र मेरी आंखों के सामने से गायब हो गया और एक दूसरा मेरुदंड मुझे दिखाई दिया। यह मेरुदंड चित्र वाले मेरुदंड जैसा नहीं था। मैंने उस साधक को कहां की अब तुम सही रास्ते पर हो। अब चित्र को बिलकुल भूल जाओ। और उस मेरुदंड को देखा करो जो तुम्हारे लिए दृश्य हुआ है।
मनुष्य भीतर से अपने शरीर संस्थान को देख सकता है। हम इसको देखने की कोशिश नहीं करते। क्योंकि वह दृश्य डरावना है, वीभत्स है। जब तुम्हें तुम्हारे रक्त मांस और अस्थिपंजर दिखाई पड़ेंगे तो तुम भयभीत हो जाओगे। इसलिए हमने अपने मन को भीतर देखने से बिलकुल रोक रखा है। हम भी अपने शरीर को उसी तरह बहार से देखते है जैसे दूसरे लोग देखते है।
वह वैसा ही है जैसे तुम इस कमरे को इसके बहार जाकर देखो; तुम सिर्फ इसकी बहारी दीवारों को देखोगें। फिर तुम भीतर आ जाओ और देखो, तब तुम्हें भीतरी दीवारें दिखाई देंगी। तुम तो सिर्फ बाहर से अपने शरीर को इस तरह देखते हो जिस तरह कोई दूसरा आदमी उसे देखता हो। भीतर से तुमने अपने शरीर को नहीं देखा है। हम देख सकते है। लेकिन इस भय के कारण वह हमारे लिए आश्चर्य की चीज बना है।
भारतीय योग की पुस्तकें शरीर के संबंध में ऐसी बातें बताती है। जो नए वैज्ञानिक शोध से हूबहू सही है। लेकिन विज्ञान यह समझने में असमर्थ है कि योग को इनका पता कैसे चला। वह इन्हें कैसे जान सका। शल्य-चिकित्सा और मानव शरीर का ज्ञान बहुत हाल की घटनाएं है। इस हालत में योग इन सारी स्नायुओं को सभी केंद्रों को, शरीर के पूरी आंतरिक संस्थान को कैसे जान गया। जो अत्यंत हाल की खोज है। आश्चर्य कि वे उन्हें भी जानते थे, उन्होने उसकी चर्चा भी कि थी। उन पर काम भी किया था। योग को शरीर की बुनियादी और महत्वपूर्ण चीजों के विषय में सब कुछ मालूम रहा है। लेकिन योग चीर फाड़ नहीं करता था। फिर उसे उसकी इतनी सारी बातें कैसे मालूम हुई थी।
सच तो यह है कि शरीर को देखने जानने का एक दूसरा ही रास्ता है। वह उसे अंदर से देखना है। अगर तुम भीतर एकाग्र हो सको। तो तुम अचानक अंदरूनी शरीर को, उसके भीतर रेखा चित्र को देखने लगोगे।
यह विधि उन लोगो के लिए उपयोगी है जो शरीर से जुडे है। अगर तुम भौतिकवादी हो, अगर तुम सोचते हो कि तुम शरीर के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो, तो यह विधि तुम्हारे बहुत काम की होगी। अगर तुम चार्वाक या मार्क्स के मानने वाले हो, अगर तुम मानते हो कि मनुष्य शरीर के अलावा कुछ नहीं है, तो तुम्हें यह विधि बहुत सहयोगी होगी। तो तुम जाओ और मनुष्य के अस्थि संस्थान को देखो।
तंत्र या योग की पुरानी परंपराओं में वे अनेक तरह की हड्डियों का उपयोग करते थे। अभी भी तांत्रिक अपने पास कोई न कोई हड्डी या खोपड़ी रखता है। दरअसल वह भीतर से एकाग्रता साधने का उपाय है। पहले वह उस खोपड़ी पर एकाग्रता साधता है। फिर आंखें बंद करता है। और अपनी खोपड़ी का ध्यान करता है। वह बाहर की खोपड़ी की कल्पना भीतर करता जाता है। और इस तरह धीरे-धीर अपनी खोपड़ी की प्रतीति उसे होने लगती है। उसकी चेतना केंद्रित होने लगती है।
वह बाहरी खोपड़ी उसका मनोदर्शन, उस पर ध्यान, सब उपाय है। और अगर तुम एक बार अपने भीतर केंद्रीभूत हो गए तो तुम अपने अंगूठे से सिर तक यात्रा कर सकते हो। तुम भीतर चलो, वहां एक बड़ा ब्रह्मांड है। तुम्हारा छोटा शरीर एक बड़ा ब्रह्मांड है।
यह सूत्र मेरुदंड का उपयोग करता है, क्योंकि मेरुदंड के भीतर ही जीवन रज्जु छिपा है। यही कारण है कि सीधी रीढ़ पर इतना जोर दिया जाता है। क्योंकि अगर रीढ़ सीधी न रही तो तुम भीतरी रज्जु को नहीं देख पाओगे। वह बहुत नाजुक है। बहुत सूक्ष्म है। वह ऊर्जा का प्रवाह है। इसलिए अगर तुम्हारी रीढ़ सीधी है, बिलकुल सीधी, तभी तुम्हें उस सूक्ष्म जीवन रज्जु की झलक मिल सकती है।
लेकिन हमारे मेरुदंड सीधे नहीं है। हिंदू बचपन सेही मेरुदंड को सीधा रखने का उपाय करते है। उनके बैठने, उठने चलने सोने तक के ढंग सीधी रीढ़ पर आधारित थे। और अगर रीढ़ सीधी नहीं है तो उसके भीतर तत्वों को देखना बहुत कठिन बहुत कठिन होगा। वह नाजुम है, सूक्ष्म है, वास्तव में पौदगलिक नहीं है। वह अपौदगलिक है, वह शक्ति है। इसलिए जब मेरुदंड बिलकुल सीधा होता है तो वह रज्जुवत शक्ति देखने में आती है।
‘’और इसमे रूपांतरित हो जाओ।‘’
और अगर तुम इस रज्जु पर एकाग्र हुए, तुमने उसकी अनुभूति और उपलब्धि की, तब तुम एक नए प्रकाश से भर जाओगे। वह प्रकाश तुम्हारे मेरुदंड से आता होगा। वह तुम्हारे पूरे शरीर पर फैल जाएगा। वह तुम्हारे शरीर के पास भी चला जाएगा।
और जब प्रकाश शरीर के पार जाता है तब प्रभामंडल दिखाई देते है। हरेक आदमी का प्रभामंडल है। लेकिन साधारणत: तुम्हारे प्रभामंडल छाया की तरह है। जिनमे प्रकाश नहीं होता। वे तुम्हारे चारों और काली छाया की तरह फैले होते है। और वे प्रभामंडल तुम्हारे प्रत्येक मनोभाव को अभिव्यक्त करते है। तब तुम क्रोध में होते हो तो तुम्हारा प्रभामंडल रक्त रंजित जैसा हो जाता है। उसमे क्रोध लाल रंग में अभिव्यक्त होता है। जब तुम उदास, बुझे-बुझे हतप्रभ होते हो तो तुम्हारा प्रभामंडल काले तंतुओं से भरा होता है। मानों तुम मृत्यु के निकट हो—सब मृत और बोझिल। और जब यह मेरुदंड के भीतर का तंतु उपलब्ध होता है तब तुम्हारा प्रभामंडल सचमुच में प्रभा मंडित होता है।
इस लिए बुद्ध, महावीर, कृष्ण क्राइस्ट, महज सजावट के लिए प्रभामंडल से नहीं चित्रित किए जाते है। वे प्रभामंडल सच में होता है। तुम्हारा मेरुदंड प्रकाश विकिरणित करने लगता है। भीतर तुम बुद्धत्व को प्राप्त होते हो, बहार तुम्हारा सारा शरीर प्रकाश, प्रकाश शरीर हो उठता है। और तब उसकी प्रभा बहार भी फैलने लगती है। इसलिए किसी बुद्ध पुरूष के लिए किसी से यह पूछना जरूरी नहीं है कि तुम क्या हो। तुम्हारा प्रभामंडल सब बता देगा। और जब कोई शिष्य बुद्धत्व प्राप्त करता है तो गुरु को पता हो जाता है। क्योंकि प्रभामंडल सब प्रकट कर देता है।
मैं तुम्हें एक कहानी बताऊ। एक चीनी संत, हुई नेंग, जब पहले-पहल अपने गुरु के पास पहुंचा तो गुरु ने कहा कि तुम किस लिए आए हो। तुम्हें मेरे पास आने की जरूरत नहीं थी। हुई नेंग की समझ में कुछ नहीं आया। उसने सोचा कि अभी गुरु द्वारा स्वीकृत होने की उसकी पात्रता नहीं है। लेकिन गुरु कुछ और ही चीज देख रहा था, वह द्वारा स्वीकृत होने की उसकी पात्रता नहीं है। लेकिन गुरु कह रहा था कि अगर तुम मेरे पास नहीं भी आओ तो भी देर-अबेर यह घटना घटने ही वाली है। तुम उसमे ही हो। इसलिए मेरे पास आने की जरूरत नहीं है।
लेकिन हुई नेंग ने प्रार्थना की कि मुझे अस्वीकार न करें। तो गुरु ने उसे प्रवेश दिया और कहा कि आश्रम के पिछवाड़े में जो रसोईघर है उसमे जाकर काम करो। और फिर दूसरी बार मेरे पास मत आना। जब जरूरत होगी, मैं ही तुम्हारे पास आऊँगा।
हुई नेंग को कोई ध्यान करने को नहीं बताया गया न कोई शास्त्र पढ़ने को कहा गया। उसे कुछ भी नहीं सिखाया गया। उसे बस रसोईघर में रख दिया गया। वह एक बहुत बड़ा आश्रम था। जिसमें कोई पाँच सौ भिक्षु रहते थे। उनमें पंडित विद्घान ध्यानी योगी सब थे। और सब साधना में लगे थे। लेकिन हुई नेंग केवल चावल साफ कतरा, या कुटता था। और रसोई के भीतर ही काम करता रहा। इस तरह से बारह वर्ष बीत गये। हुई नेंग इस बीच गुरु के पास दुबारा नहीं गया। क्योंकि इजाजत नहीं थे। वह प्रतीक्षा करता रहा। वह सिर्फ प्रतीक्षा ही करता रहा और लोग उसे महज नौकर समझते थे। कोई उस पर ध्यान भी नहीं देता था। उस आश्रम में पंडितों और ध्यानियों की कमी नहीं थी। उनके बीच एक चावल कूटनें वाले की क्या बिसात थी।
और फिर एक दिन गुरु ने घोषणा की कि मेरी मृत्यु निकट हे और मैं अब चाहता हूं कि किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाऊं। इसलिए जो समझते हों कि वे बुद्धत्व को प्राप्त है, वे चार पंक्तियों की एक कविता रचे। जिसमे वह सब व्यक्त कर दें जो उन्होंने जाना है। गुरु ने यह भी कहा कि जिसकी कविता में सच में बुद्धत्व व्यक्ति होगा, उसे में अपना उतराधिकारी चुनूंगा।
उस आश्रम में एक महापंडित था। इसलिए उस प्रतियोगिता में किसी ने भाग नहीं लिया। सब यही सोचते थे कि महापंडित जीतेगा। वह शास्त्रों का बड़ा ज्ञाता था। सो उसने चार पंक्तियां लिखी। उन चार पंक्तियों में उसने लिखा-
मन एक दर्पण है, जिस पर धूल जम जाती है।
धूल को साफ कर दो, सत्य अनुभव में आ जाता है।
बुद्धत्व प्राप्ति हो जाती है।
लेकिन वह महापंडित भी डरता था। क्योंकि गुरु को पता था कि कौन ज्ञान को उपल्बध है। कौन नहीं। यद्यपि महापंडित ने जो लिखा था वह बहुत सुंदर था। सब शास्त्रों का सार-निचोड था। यही तो सब वेदों का सार था। लेकिन पंडित डरता था कि यह उसने शास्त्रों से लिया था। इसमे उसका अपना कुछ भी नहीं है। इस लिए वह सीधा गुरु के पास नहीं गया। वह रात के अंधेरे में गुरु की झोपड़ी पर गया, और उनकी दीवार पर वे चार पंक्तियां लिख दी। उसने नीचे हस्ताक्षर भी नहीं किया। उसने सोचा कि अगर गुरु ने उन्हें स्वीकृति दी तो मैं कहूंगा कि मैंने लिखा है। और अगर गुरु ने ठीक नहीं कहां तो चुप रहूंगा।
लेकिन गुरु ने स्वीकृति दे दी। सुबह उन्होंने कहां कि जिस व्यक्ति ने ये पंक्ति लिखी है वह ज्ञानी है। समूचे आश्रम में उसकी चर्चा होने लगी। सब तो जानते थे कि किसने लिखा है। वे चर्चा करने लगे कि पंक्तियां तो सुंदर है। सचमुच सुंदर थी।
इसी चर्चा में लगे कुछ भिक्षु रसोईघर में पहुंचे। ये चाय पीते थे। और चर्चा करते थे। हुई नेंग उन्हें चाय पील रहा था। उसने सह बात सुनी। जब वे चार पंक्तियां उसने सुनी तब वह हंसा। इस पर किसी ने उससे पूछा कि तुम क्यों हंस रहे हो। तुम तो कुछ जानते भी नहीं हो। बारह वर्षों से तुम तो चोंके से बहार भी नहीं निकले हो। तुम्हें किस बात को पता है। तुम क्यों हंस रहे हो।
किसी ने इससे पहले उस भिक्षु को हंसते नहीं देखा था। वह तो महा मूढ़ समझा जाता था। जिसे बात करनी भी नहीं आती थी। उसने कहा कि मैं लिखना नहीं जानता हूं और मैं ज्ञानी भी नहीं हूं। लेकिन वे चार पंक्तियां गलत है। अगर कोई व्यक्ति मेरे साथ आये तो मैं चार पंक्तियां बना सकता हूं। और वह उसे दीवार पर लिख दे। मैं लिखना नहीं जानता हूं।
एक भिक्षु मजाक में उसके साथ चल दिया। उसने पीछे ऐ भीड़ भी वहां पहूंच गई। सब के लिए ये कुतूहल भर बात थी कि एक चावल कूटनें वाला, ब्रह्म ज्ञान की चार लाईनें बातयेगा। नेंग ने लिखवाया:
कैसा दर्पण, कैसी धूल।
न कोई मन है,
न कोई दर्पण,
फिर धूल जमेगी कहां?
जो यह जान गया
वह उपल्बध हो गया धर्म को।
लेकिन जब गुरु आया तो उसने कहा की ये गलत है। हुई नेंग ने गुरु के पैर छुए और वह रसोई घर में लोट गया।
रात में जब सब सोए थे, गुरु नेंग के पास आया। और चुप से कहां, तुम सही हो, लेकिन मैं तुम्हारी बात को उन मूर्खों के सामने सही नहीं कह सकता। वे विद्घान मूर्ख है। और अगर मैं कहता हूं कि मेरे उत्तराधिकारी तुम हो तो वह तुम्हें मार देंगे। और यह बात दूसरों को मत कहाना। तुम यहां से भाग जाओ। जिस दिन तुम यहां आये थे। उसी दिन मैं जान गया था तुम्हारे प्रभामंडल को देख कर। कि तुम ही मेरे उतराधिकारी हो। और बारह वर्ष के मौन ने, जिसमे तुम्हारा प्रभामंडल पूर्ण हो चला। तुम पूर्ण चंद्र हो गए हो। लेकिन यहां से निकल जाओ वरना वे लोग तुम्हें मार देंगे। तुम यहां बारह वर्ष से हो, निरंतर तुम्हारे प्रकाश विकिरण हो रहा है। लेकिन कोई उसे देख नहीं सका। यद्यपि हर दिन कोई न कोई तुम्हें दो या तीन बार दिन में देखता है। इसी लिए मेंने तुम्हें रसोई घर में रखा था। कोई तुम्हारे प्रभामंडल को नहीं देख सका। इस लिए तुम यहां से भाग जाओ।
जब मेरुदंड का यह तंतु देख लिया जाता है, उपलब्ध होता है, तब तुम्हारे चारों और एक प्रभामंडल बढ़ने लगता है। इसमें रूपांतरित हो जाओ। उस प्रकाश से भर जाओ और रूपांतरित हो जाओ। यह भी केंद्रित होना है, मेरुदंड में केंद्रित होना।
अगर तुम शरीर वादी हो तो यह तुम्हारे काम आयेगी। अगर नहीं तो यह कठिन है। तब भीतर से शरीर को देखना कठिन होगा। यह विधि पुरूषों की बजाएं स्त्रियों के लिए ज्यादा कारगर होगी। स्त्रियां ज्यादा शरीवादी होती है। वे शरीर में अधिक रहती है। और कल्पनाशील भी होती है। शरीर का मनोदर्शन उनके लिए आसान है। स्त्रियां पुरूषों से ज्यादा शरीर केंद्रित होती है। लेकिन जो कोई भी शरीर को महसूस कर सकता है। जो कोई भी आँख बंद कर अंदर शरीर को देख सकता है। उसके लिए यह विधि बहुत सहयोगी है।
पहले अपने मेरुदंड को देखो, फिर उसके बीच से जाती हुई रजत-रज्जु को। पहले तो वह कल्पना ही होगी। लेकिन धीरे-धीरे तुम पाओगे कि कल्पना विलीन हो गई है। और जिस क्षण तुम आंतरिक तत्व को देखोगें, अचानक तुम्हें तुम्हारे भीतर प्रकाश का विस्फोट अनुभव होगा।
कभी-कभी यह घटना प्रयास के बिना भी घटती है। यह होता है। फिर तुम्हें कहुं, किसी गहरे संभोग के क्षण में यह होता है। तंत्र जानता है कि गहरे काम-कृत्य में तुम्हारी सारी ऊर्जा रीढ़ के पास इकट्ठी हो जाता है। असल में गहरे काम कृत्य में रीढ़ बिजली छोड़ने लगती है। कभी-कभी तो ऐसा होता है। कि रीढ़ को छूने से तुम्हें धक्का लगता है। और अगर संभोग गहरा हो, प्रेमपूर्ण हो, लंबा हो, अगर दो प्रेमी प्रगाढ़ प्रेमालिंगन में हों, शांत और निश्चल, एक दूसरे को भरते हुए। तो घटना घटती है। कई बार ऐसा हुआ है कि अँधेरा कमरा अचानक रोशनी से भर जाता है। और दोनों शरीरों काक एक नीली प्रभामंडल घेर लेता है।
ऐसी अनेक घटनाएं हुई है। तुम्हारे अनुभव में भी ऐसा हुआ होगा। कि अंधेरे कमरे में गहरे प्रेम में उतरने पर तुम्हारे दो शरीरों के चारों और एक रोशनी सी हो गई है। और फैल कर पूरे कमरे में भर गई हो। कई बार ऐसा हुआ है कि किसी दृश्य कारण के बिना ही कमरे की मेज पर से अचानक चीजें उछल कर नीचे गिर गई है। ओर अब मानस्विद बताते है कि गहरे काम-कृत्य में बिजली की तरंगें छूटती है। और उसके कई प्रभाव और परिमाण हो सकते है। चीजें अचानक गिर सकती है। हिल सकती है। टूट सकती है। ऐसे प्रकाश के फोटो भी लिए गए है। लेकिन यह प्रकाश सदा मेरुदंड के इर्द-गिर्द इकट्ठा होता है।
तो कभी-कभी काम-कृत्य के दौरान भी तुम जाग सकते हो। अगर तुम अपने मेरुदंड के बीच से जाती हुई रजत-रज्जु को देख सको। तंत्र को यह बात भलीभंति पता है और उसने इस पर काम भी किया है। तंत्र नपे इस उपलब्धि के लिए संभोग का भी उपयोग किया है। लेकिन उसके लिए काम कृत्य को सर्वथा भिन्न ढंग का होना पड़ेगा। उसका गुण धर्म भिन्न होगा। उस हालत में काम कृत्य किसी तरह निबट लेने की, महज स्खलन क द्वारा छुट्टी पा लेने की, झट-पट उससे गुजर जाने की बात नहीं रहेगी। तब वह एक शारीरिक कर्म नहीं रहेगा। तब वह एक गहरा आध्यात्मिक मिलन होगा। तब यथार्थ में वह दो देहों के द्वारा दो आंतरिकताओं का, दो आत्माओं का एक दूसरे में प्रवेश होगा।
इसलिए मेरा सुझाव है कि जब तुम गहरे काम कृत्य में होओ तो इस विधि को प्रयोग में लाओ। यह आसान हो जायेगी। यौन को भूल जाओ। जब गहरे आलिंगन में उतरो बस भीतर रहो। और दूसरे व्यक्ति को भूल जाओ। भीतर जाओ और अपने मेरुदंड को देखो। उस समय मेरू दंड के पास अधिक उर्जा प्रवाहित होती है। क्योंकि तुम शांत होते हो और तुम्हारा शरीर विश्राम में होता है। प्रेम गहरे से गहरा विश्राम है, लेकिन हमने उसे भी तनाव बना लिया है। हमने उसे एक चिंता एक बोझ में बदल लिया है।
प्रेम की ऊष्मा में, जब तुम भरे-भरे और शिथिल हो, आंखें बंद कर लो। सामान्यत: पुरूष आंखें बंद नहीं करते। स्त्रियां करती है। इसलिए मैंने कहा कि पुरूषों की बजाएं स्त्रियां अधिक शरीर वादी है। काम-कृत्य के गहरे आलिंगन में उतरने पर स्त्रियां आंखें बंद कर लेती है। दरअसल वे खुली आंखों से प्रेम नहीं कर सकती। आंखों के बंद रहने पर वे भीतर से शरीर को अधिक महसूस कर पाती है।
तो आंखें बंद कर लो और शरीर को महसूस करो। विश्राम में उतर जाओ और मेरूदंड पर चित एकाग्र करो। और यह सूत्र बहुत सरल ढंग से कहता है: ‘’इसमें रूपांतरित हो जाओ।‘’ तुम इसके द्वारा रूपांतरित हो जाओगे।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र
(तंत्र-सूत्र—भाग-1)
प्रवचन-9
Saturday, November 7, 2015
प्रश्न:-- आपने गोरखनाथ जी को भारत के चार शीर्षस्थ प्रज्ञा-पुरुषों में रखा है।मगर आश्चर्य है कि ऐसे चोटी के महापुरुष के जन्म-स्थान और समय का भी पता नहीं है! ऐसा क्यों?
ओशो:-- आनंद मैत्रेय, इस संबंध में पश्चिम और पूर्व की दृष्टियां भिन्न हैं। पश्चिम सोचता है इतिहास की भाषा में, पूरब सोचता है पुराण की भाषा में। इतिहास तथ्यों का होता है, पुराण सत्यों का। तथ्य एक विशेष स्थान में घटता है और विशेष समय में तथ्य की सीमा होती है। तथ्य सामयिक होता है, समय की घटना। सत्य शाश्वत है। उसकी अभिव्यक्ति भी समय में होती है, तो भी वह समय में सीमित नहीं है।
इसलिए पूर्व में हमने जरा भी चिंता नहीं की। न राम का ठीक-ठीक इतिहास पता है, न कृष्ण का। जो हमारे हाथ में है, कहानियां हैं। पश्चिम की नजर से देखो तो बस कहानियां मात्र हैं, कपोल-कल्पनाएं हैं। क्योंकि जब तक ठोस प्रमाण न हों, पश्चिम किसी बात को इतिहास स्वीकार नहीं करता। जैनों के चौबीस तीर्थंकर कपोल-कल्पनाएं मालूम होते हैं; कोई प्रमाण नहीं। बुद्ध भी ठीक-ठीक किस तिथि-तारीख को पैदा हुए, पक्का करना मुश्किल है।
हमने चिंता ही नहीं ली इस बात की। इससे अंतर भी क्या पडता है? बुद्ध ‘अ’ नाम के गांव में पैदा हों कि ‘ब’ नाम के गांव में पैदा हों, इससे अंतर क्या पड़ता है? और बुद्ध इस सन में पैदा हों या उस सन में, क्या भेद पड़ेगा? हमने बुद्धत्व को समझने की चेष्टा की है। बुद्ध के व्यक्तित्व से क्या लेना-देना है? उनकी देह तो क्षण- भंगुर है, आज है और कल नहीं हो जाएगी। उनका संदेश शाश्वत है। और वह संदेश एक बुद्ध का ही नहीं, वह संदेश समस्त बुद्धों का है।
इसलिए यह भी ध्यान रखना कि जब हमने बुद्ध की प्रतिमा बनायी तो हमने इसकी बहुत फिक्र नहीं की कि बुद्ध ऐसे ही लगते हैं या नहीं। हमने बुद्ध की प्रतिमा गौतम बुद्ध को देखकर नहीं बनायी है, हमने बुद्ध की प्रतिमा बनायी समस्त बुद्धों के सार-निचोड़ की तरह। बुद्ध कैसे बैठते हैं, कैसे उठते हैं-सारे बुद्धों का जो सार-संचय है, वह हमने बुद्ध की प्रतिमा में ढाला है। बुद्ध की प्रतिमा समस्त बुद्धों का प्रतीक है।
इसलिए तुम चकित होओगे, जैन-मंदिर में जाना कभी, चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएं देखकर तुम हैरान होओगे, वे बिलकुल एक जैसी मालूम होती हैं। अब ये चौबीस व्यक्ति एक जैसे नहीं हो सकते। दुनिया में दो व्यक्ति भी एक जैसे नहीं होते, तो चौबीस व्यक्ति तो एक जैसे कैसे हो सकते हैं? जुड़वां बच्चे भी बिलकुल एक जैसे नहीं होते, तो ये चौबीस व्यक्ति समय की बड़ी लंबी यात्रा में, बड़े दूर-दूर, जिनके बीच हजारों साल का फासला है, कैसे एक जैसे हो सकते हैं?
ये एक जैसे नहीं थे। लेकिन इनके भीतर कुछ था जो एक जैसा था। वही ध्यान, वही समाधि, वही रसधार..। उस भीतर के एक-जैसे-पन के कारण हमने बाहर की प्रतिमा पर ध्यान नहीं दिया। हमने भीतर की अनुभूति को स्मरण रखा। बाहर की प्रतिमा उस भीतर की अनुभूति की दिशा-सूचक मात्र है। ये जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां तथ्यगत नहीं हैं, सत्यगत हैं।
तथ्य तो बाहरी होता है। जैसे तुमने एक गुलाब का फूल देखा, यह तथ्य है। तुमने दो गुलाब के फूल देखे, यह तथ्य है। और तुमने हजारों गुलाब के फूलों का इत्र निचोड़ लिया, यह सत्य है। इसका किसी एक फूल से कुछ लेना-देना नहीं है, यह सार है।
इसलिए इस देश की चिंता बड़ी भिन्न है। इसने फिक्र नहीं की कि गोरख कहां पैदा हुए। अलग-अलग दावेदार हैं। कोई कहता है पंजाब, कोई कहता है बंगाल, और सबसे बड़ा दावा नेपाल का है। क्योंकि नेपाली कहते हैं कि गोरख जिस गांव में पैदा हुए उसका नाम है गोरखाली। इसलिए नेपालियों की एक जाति है गुरखा। वह गोरख के नाम से है। मगर गोरख की भाषा संकेत देती है कि जैसे वे बंगाल में पैदा हुए हों हसिबा खेलिबा करिबा ध्यानं। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी मालूम होता है। मेरे देखे वे बंगाल से लेकर काश्मीर तक, नेपाल से लेकर कन्याकुमारी तक परिव्राजक रहे होंगे। बहुत जगह ठहरे होंगे, बहुत लोगों से मिले-जुले होंगे बहुत जगह उनके प्रेमी पैदा हुए होंगे। बहुत जगह लोगों को ऐसा लगा होगा कि वे हमारे हैं। इतना प्यारा व्यक्ति किसको अपना नहीं लगता! जिनको अपना लगा होगा, उन्होंने अपनी कहानियां गढ़ ली होंगी।
कहानियां प्रीतिकर हैं। कहानियां सत्यों के संबंध में कुछ नहीं कहती; लेकिन गोरख और लोगों के बीच जो भाव घटा होगा, उसके संबंध में कुछ कहती हैं। गोरख बंगाल गये तो बंगाली हो गये होंगे। ऐसे डूब गये होंगे बंगाल की जीवन- धारा में कि लोगों को लगे होंगे कि बंगाली हैं।
इधर मेरे पास लोग आ जाते हैं। अगर मैं जीसस पर बोलता हूं तो ईसाई मुझसे आकर कहते हैं, क्या आप ईसाई हैं? अगर मैं बुद्ध पर बोलता हूं तो बौद्धों ने मुझे कहा है कि क्या आप बुद्ध के अनुयायी हैं? जब मैं नानक पर बोला तो सिक्खों ने मुझे आकर कहा कि जो हमने कभी नहीं सोचा था, वह अर्थ आपने प्रगट कर दिया, आप ही सच्चे सिक्ख हैं! मैं जिस पर बोलता हूं उसके साथ तल्लीन हो जाता हूं उसे बोलने देता हूं अपने से। तो सिक्खों को लग सकता है कि सिक्ख हूं और बौद्धों को कि बुद्ध हूं ईसाईयों को कि ईसाई हूं।
ऐसा ही लगा होगा। जहां गये होंगे, जहां ठहरे होंगे, जहां उनके पैर पड़े होंगे, वहीं के लोगों को लगा होगा-अपने हैं। यह उनके प्रेम के कारण लगा होगा। और इसलिए बात और भी मुश्किल हो गयी तय करनी कि वे कहां पैदा हुए, कब पैदा हुए। फिर ऐसे व्यक्ति न तो अपने जन्म की चर्चा करते हैं, न अपने घर-द्वार की चर्चा करते हैं। ऐसे व्यक्तियों का क्या घर, क्या द्वार? यह सारा आकाश उनका घर है! यह सारी पृथ्वी उनकी है।
मैं कल ही मेरे खिलाफ किसी हिंदू संन्यासी का लिखा हुआ एक पत्र करंट में छपा है, वह देख रहा था। उसने सरकार से प्रार्थना की है कि मैं देशद्रोही हूं मुझ पर अदालत में मुकदमा चलाया जाना चाहिये। उसकी बात ठीक है। सरकार को उसकी बात पर ध्यान देना चाहिये। मुझे देशद्रोही कहा जा सकता है, क्योंकि देशों में मेरा कोई भरोसा नहीं। न मुझे कोई देश है, न कोई परदेश है, मुझे यह सारी पृथ्वी अपनी मालूम होती है।
जिस संन्यासी ने यह कहा है… हिंदू मतांधता.. उसे अड़चन होती होगी कि मैं अपने को हिंदू घोषित क्यों नहीं करता। मैं नहीं हूं! मैं किसी सीमा में बंधा नहीं हूं। मस्जिद भी मेरी है और मंदिर भी मेरा है और गिरजा भी और गुरुद्वारा भी। और राष्ट्रों में मेरा भरोसा नहीं है। मैं तो मानता हूं कि राष्ट्रों के कारण ही मनुष्य-जाति पीड़ित है। राष्ट्र मिट जाने चाहिए। हो चुके बहुत राष्ट्रगान, उड़ चुके बहुत झंडे, हो चुकीं बहुत मूढ़ताएं पृथ्वी पर, अब तो मनुष्य की एकता स्वीकार करो। अब तो एक पृथ्वी और एक मनुष्य.। ये राष्ट्रीय सरकारें जानी चाहिये। और जब तक ये न जायेंगी तब तक मनुष्य की समस्याएं हल न हो सकेंगी, क्योंकि मनुष्य की समस्याएं अब राष्ट्रों से बड़ी समस्याएं हैं।
जैसे आज भारत गरीब है। भारत अपनी ही चेष्टा से इस गरीबी के बाहर नहीं निकल सकेगा, कोई उपाय नहीं है। भारत गरीबी के बाहर निकल सकता है, अगर सारी मनुष्यता का सहयोग मिले। क्योंकि अब मनुष्यता के पास इस तरह के तकनीक, इस तरह का विज्ञान मौजूद है कि इस देश की गरीबी मिट जाये। लेकिन अगर तुम अकड़े रहे कि हम अपनी गरीबी खुद ही मिटायेगे, तो तुम ही तो इस गरीबी को बनानेवाले हो, तुम मिटाओगे कैसे? तुम्हारी बुद्धि इसके भीतर आधार है, तुम इसे मिटाओगे कैसे? तुम्हें अपने द्वार-दरवाजे खोलने होंगे। तुम्हें अपना मस्तिष्क थोड़ा विस्तीर्ण करना होगा। तुम्हें मनुष्यता का सहयोग लेना होगा।
और ऐसा नहीं है कि तुम्हारे पास कुछ भी देने को नहीं है। तुम्हारे पास कुछ देने को है दुनिया को। तुम दुनिया को ध्यान दे सकते हो। अगर अमरीका को ध्यान खोजना है तो अपने बलबूते नहीं खोज सकेगा अमरीका। उसे भारत की तरफ नजर उठानी पड़ेगी। मगर वे समझदार लोग हैं; ध्यान सीखने पूरब चले आते हैं। कोई अड़चन नहीं है उन्हें, कोई बाधा नहीं है।
बुद्धिमानी का लक्षण यही है कि जो जहा से मिल सकता हो ले लिया जाये। यह सारी पृथ्वी हमारी है। इसको खंडों में बांटकर हमने उपद्रव खड़ा कर लिया है। आज मनुष्य के पास ऐसे साधन मौजूद हैं कि अगर राष्ट्र मिट जायें, तो सारी समस्यायें मिट जायें। सारी मनुष्यता इकट्ठी होकर अगर उपाय करे तो कोई भी समस्या पृथ्वी पर बचने का कोई भी कारण नहीं है।
मगर पुरानी आदतें हैं। हमारा राष्ट्र-सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा…..! और इसी तरह की मूढ़ताएं और राष्ट्रों में भी हैं। उनको भी यही खयाल है। इन्हीं अहंकारों के कारण संघर्ष है। फिर संघर्ष और राष्ट्रों की सीमाओं के कारण मनुष्य की सारी शक्ति युद्धों में लग जाती है।
तुम्हें जानकर यह हैरानी होगी कि अब हमारे पास इतना युद्ध का सामान इकट्ठा हो गया है सारी दुनिया में, रूस और अमरीका में विशेषकर, कि एक-एक आदमी को एक-एक हजार बार मारा जा सकता है! हमारे पास एक हजार पृथ्वियों को नष्ट करने का साधन उपस्थित हो गया है; एक ही पृथ्वी है हालांकि। अंबार लगे जा रहे हैं अस्त्र-शस्त्रों के! और किसी भी दिन किसी एक पागल राजनीतिज्ञ की धुन और यह सारी पृथ्वी धूल का एक ढेर, राख का एक ढेर रह जायेगी।
और राजनीतिज्ञों से पागलपन की अपेक्षा की जा सकती है। और किससे करोगे? एक राजनीतिज्ञ के पागल होने से इस सारी दुनिया में ऐसा भयंकर उत्पात हो जायेगा कि तुम्हें सोचने-समझने का मौका भी नहीं मिलेगा। पांच-सात मिनट लगेंगे सारी दुनिया को राख हो जाने में। खबर भी नहीं पहुंच पायेगी और मौत आ जायेगी। जहां इतना भयंकर हिंसा का आयोजन हो गया हो, अब पुराने राष्ट्रों की धारणाएं काम नहीं दे सकतीं। अब खतरा है। इन्हीं राष्ट्रों के कारण ये अस्त्र-शस्त्र इकट्ठे हो रहे हैं-अपनी रक्षा करनी है..। कहीं दूसरा आगे न बढ़ जाये, उससे हमें आगे रहना है।
मनुष्य-जाति की अस्सी प्रतिशत क्षमता युद्ध में चली जाती है। यही अस्सी प्रतिशत क्षमता अगर खेतों में लगे, बगीचों में लगे, कारखानों में लगे, यह पृथ्वी स्वर्ग हो जाये! जो सपना तुम्हारे ऋषि-महर्षि देखते थे आकाश में स्वर्ग का, वह अब पृथ्वी पर बन सकता है, कोई रुकावट नहीं। लेकिन पुरानी आदतें…। यह हमारा देश, वह उनका देश। हमें भी लड़ना है, उन्हें भी लड़ना है। गरीब से गरीब देश भी अणुबम बनाने की चेष्टा में संलग्न हैं। भूखे मर रहे हैं, मगर अणुबम बनाना है! भारत जैसे देश के पीछे भी वही भाव है गहरे में। भूखे मर जायें, मगर अपनी शान रखनी है!
मैं तो राष्ट्रों में मानता नहीं। अगर मेरी सुनी जाये तो मैं तो कहूंगा कि भारत को पहला देश होना चाहिए जो राष्ट्रीयता छोड़ दे। यह अच्छा होगा कि कृष्ण, बुद्ध, पतंजलि और गोरख का देश राष्ट्रीयता छोड़ दे और कह दे कि हम अंतर्राष्ट्रीय भूमि हैं। भारत को तो संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमि बन जानी चाहिए। कह देना चाहिए, यह पहला राष्ट्र है जो हम संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंपते हैं-सम्हालो! कोई तो शुरुआत करे…। और यह शुरुआत हो जाये तो युद्धों की कोई जरूरत नहीं है। ये युद्ध जारी रहेंगे, जब तक सीमाएं रहेंगी। ये सीमाएं जानी चाहिये।
तो ठीक ही कहते हो, कह सकते हो मुझे देशद्रोही-इन अर्थों में कि मैं मानव-द्रोही नहीं हूं। लेकिन तुम्हारे सब देश-प्रेमी मानव-द्रोही हैं। देश-प्रेम का अर्थ ही होता है मानव-द्रोह। देश-प्रेम का अर्थ होता है खंडों में बांटो। तुमने देखा न, जो आदमी प्रदेश को प्रेम करता है वह देश का दुश्मन हो जाता है। और जो जिले को प्रेम करता है वह प्रदेश का भी दुश्मन हो जाता है। मैं दुश्मन नहीं हूं देश का, क्योंकि मेरी धारणा अंतर्राष्ट्रीय है। यह सारी पृथ्वी एक है। मैं बड़े के लिये छोटे को विसर्जित कर देना चाहता हूं।
और इन छोटे-छोटे घेरों ने, बागुडों ने मनुष्य को बहुत परेशान किया है। तीन हजार साल में पांच हजार युद्ध लड़े गये हैं। और पहले तो ठीक था कि तीर-कमान से चल रहे थे युद्ध, चलते रहते, कोई हर्जा नहीं था। थोड़े-बहुत लोग मरते थे तो कोई अड़चन नहीं हो जाती थी। अब युद्ध समग्र युद्ध है। अब यह पूरी मनुष्य-जाति की आत्महत्या है। अब सब जगह हिरोशिमा बन सकता है-किसी भी दिन, किसी भी क्षण..। इस युद्ध की विभीषिका को समझो और इसमें जितनी ऊर्जा जा रही है, वह सोचो। यही ऊर्जा सारी पृथ्वी को हरियाली से भर सकती है, वैभव से भर सकती है। मनुष्य पहली दफा आनंदमग्न हो नाच सकता है, प्रभु के गीत गा सकता है, ध्यान की तलाश कर सकता है।
लेकिन यह नहीं होगा। ये तुम्हारे तथाकथित देशप्रेमी, ये राष्ट्रवादी……..।
राष्ट्रवाद महापाप है। इस राष्ट्रवाद के कारण ही दुनिया में सारे उपद्रव होते रहे। मैं राष्ट्रवादी नहीं हूं। मैं तो सारी सीमाएं तोड़ देना चाहता हूं। इस पृथ्वी पर जिन लोगों ने भी परमात्मा की छोटी-सी झलक पाई है उनकी कोई सीमाएं नहीं हैं। वे किसी देश, किसी जाति, किसी वर्ग, किसी संप्रदाय, किसी वर्ण के नहीं होते। वे सब के हैं, सब उनके हैं।
फिर इस तरह के व्यक्ति, गोरख जैसे व्यक्ति, इस बात की चिंता ही नहीं लेते कि कब हम पैदा हुए, इसकी बात करें, किस घर में पैदा हुए, इसकी बात करें, किस गांव में पैदा हुए, इसकी बात करें। ये व्यर्थ की बातें हैं, क्योंकि गोरख जानते है-न हम कभी पैदा हुए और न हम कभी मरेंगे। ये तो देहवादियो की बातें हैं। ये तो जिनका शरीर से मोह और तादात्म्य है, उनकी बातें हैं। गोरख जैसे व्यक्ति तो उसे जान लिये हैं जो न कभी पैदा होता है, न मरता है; न मर सकता है, न पैदा हो सकता है। अजन्मे को, अनादि को, अनंत को जान लेने के बाद कौन जन्म की बात करे? किसकी बात करनी है?
इसलिए इस तरह के लोग बात नहीं करते। स्वभावत: उनके पीछे बहुत-सी कथाएं तो छूट जाती हैं, लेकिन सुनिश्चित तथ्य नहीं छूट जाते। और ऐसे लोग इतने विराट हृदय होते हैं कि किन्हीं भी तरह के विशेषणों को अंगीकार नहीं करते। क्योंकि विशेषण तो अज्ञान का ही सूचक है। जो कहता है मैं हिंदू हूं मुसलमान हूं ईसाई हूं-यह अज्ञानी का लक्षण है। जहां प्रकाश जला वहां विशेषण गये; विशेषण तो अंधेरे में ही जीते हैं। वहां तो विशेषणशून्य अनिर्वचनीय का आविर्भाव हो जाता है। इस कारण नहीं कुछ पक्का पता चलता, कहां पैदा हुए कब पैदा हुए।
लेकिन कुछ लोग इस खोजबीन में लगे रहते हैं। कुछ लोग अपनी जिंदगी इसी में लगाते हैं। इसी तरह के लोग विश्वविद्यालयों में शोध करते हैं, बड़े शोधकर्ता हो जाते हैं। उन्हें उपाधियां मिलती हैं-पी एच. डी. और डी लिट और डी फिल। और उनका बड़ा सम्मान होता है। उनका काम क्या है? उनका काम यह है कि वे तय करते हैं कि गोरखनाथ कब पैदा हुए थे। कोई कहता है दसवीं सदी के अंत में, कोई कहता है म्यारहवीं सदी के प्रारंभ में। इस पर बड़ा विवाद चलता है। बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों के ज्ञानी सिर गपा कर खोज में लगे रहते हैं शास्त्रों की, प्रमाणों की, इसकी, उसकी। उनकी पूरी जिंदगी इसी में जाती है। इससे बड़ा अज्ञान और क्या होगा?
गोरख कब पैदा हुए, इसे जानकर करोगे क्या? इसे जान भी लिया तो पाओगे क्या? गोरख न भी पैदा हुए हों, यह भी सिद्ध हो जाये, तो भी क्या फायदा है? हुए हों, न हुए हों, अर्थहीन है। गोरख ने क्या जीया उसका स्वाद लो।
इसलिए तुम्हारे विश्वविद्यालय ऐसी व्यर्थता के कामों में संलग्न हैं कि बड़ा आश्चर्य होता है कि इन्हें विश्वविद्यालय कहो या न कहो। इनका काम ही… तुम्हारे विश्वविद्यालयों में चलने वाली जितनी शोध है, सब कूड़ा-करकट है।
मैं एक जगह बोल रहा था। एक बहुत बड़े शोधकर्ता, बड़े पंडित खड़े हुए और उन्होंने मुझसे पूछा कि आप सिर्फ मेरे एक प्रश्न का जबाव दे दें कि बुद्ध और महावीर में उम्र में कौन बड़ा था। दोनों समसामयिक थे। क्योंकि मैं इसी पर तीस साल से शोध कर रहा हूं।
मैंने उनकी तरफ बड़े दया- भाव से देखा। मैंने कहा, तुम्हारे तीस साल गये। अब बुद्ध उम्र में बड़े थे कि छोटे थे, इससे क्या सार? नहीं उन्होंने कहा कि इतिहास को जानकारी होनी चाहिए। मैंने कहा, तुमने पक्का भी कर दिया कि बुद्ध बड़े थे या महावीर बड़े थे, तुम्हें क्या मिलेगा? और इतिहास जो पढ़ेंगे उन्हें क्या मिलेगा? और तीस साल तुमने अपनी जिंदगी के गंवा दिये! और लोग सोचते हैं कि तुम एक बहुत महत्वपूर्ण कार्य में लगे हो।
कभी-कभी तथाकथित ज्ञान के नाम पर ऐसी मूढ़ताएं चलती हैं कि अगर तुम गौर न करो तो तुम्हें खयाल ही न आयेगा। बुद्ध के अंतरतम में उतरो, महावीर के अंतरतम में उतरों, तो तुम पाओगे वहां दो व्यक्ति भी नहीं हैं-एक ही है। वहां एक ही निरभ्र आकाश है, एक ही शून्य संगीत है, एक ही आनंद-उत्सव है।
झेन फकीर ठीक कहते हैं कि बुद्ध हुए ही कहां। बुद्ध को माननेवाले लोग हैं, कहते हैं बुद्ध हुए ही कहां, कभी नहीं हुए, सब व्यर्थ की बातें हैं। रोज बुद्ध की पूजा करते हैं और कहते हैं, बुद्ध कभी हुए नहीं, सब झूठी बातें हैं। क्या प्रयोजन होगा झेन फकीरों का? वे यही कह रहे हैं कि कहो हुए, तो बस चले कुछ लोग खोजने कि कब हुए, किस तारीख में हुए। इसी में वे समय गंवा देंगे। इसलिए हम कहते हैं, हुए ही नहीं, झंझट छोड़ो। लेकिन बुद्ध के भीतर जो घटा है वह जरूर घटा है। किसके भीतर घटा है यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। उनका नाम गौतम था कि कुछ और था, उनके पिता यह थे कि वह थे-इस सब से कोई प्रयोजन नहीं है।
बुद्ध के भीतर कुछ घटा है। वृक्ष के तले बैठे हैं एक सुबह। वे जैसे सांझ बैठे थे वैसे ही नहीं उठे, कुछ नया आदमी उठा। वही असली जन्म है, उसको ही जन्म कहो। और उसका तिथि, दिवस, माह से, वर्ष से कोई संबंध नहीं है। एक क्षण ऐसा आया जब विचार शात हो गये, शून्य हो गये। चेतना शुद्ध दर्पण बनी। ऐसे ही तुम्हारी चेतना बने, इसकी प्रक्रिया में समय लगाओ। अच्छा यही है कि तुम ही बुद्ध हो जाओ। अच्छा यही है कि तुम्हारे भीतर गोरख का नाद गंजे। बजाय तुम गोरख के इतिवृत्त में जाओ, अच्छा हो गोरख के अंतस में जाओ।
इसलिए इस देश ने ठीक ही किया कि व्यर्थ बातों का विचार नहीं किया, व्यर्थ बातों को बीच में लाये ही नहीं। जो सार-सार है उतना कहा। क्योंकि आदमी ऐसा उपद्रवी है, ऐसा अज्ञानी है कि जरा-सा असार हाथ में लग जाये तो उसे तो सम्हाल कर रख लेता है, और सार को भूल जाता है। इसलिए असार की हमने बात नहीं की है, सार ही सार की बात की है, कि तुम कुछ भी पकड़ोगे तो सार ही पकड़ में आयेगा। तुम्हें असार मिले ही न, इसलिए हमने सारा असार मिटा दिया है, पोंछ डाला है।
हमने जो प्यारी कथाएं गढ़ी हैं, वे जरूरी नहीं है कि हुई हों। होने की जरूरत भी नहीं है; वे प्रतीक हैं। और प्रतीक काव्यात्मक होते हैं। इतिहास से उनका संबंध नहीं होता, अंतरात्मा से उनका संबंध होता है। जैसे हमने कहा कि बुद्ध को जब ज्ञान हुआ तो बेमौसम फूल खिल गये। अब यह कोई इतिहास नहीं है, बेमौसम फूल नहीं खिलते कभी। हमने लिखा है कि जब बुद्ध जंगल से निकलते थे, अगर किसी सूखे वृक्ष के नीचे बैठ जाते तो उसमें हर पत्ते आ जाते। ऐसा कहीं नहीं होता है। बुद्ध के ध्यान को, बुद्ध की समाधि को देखकर वृक्ष में हरे पत्ते आ जाएं, यह इतिहास नहीं है। मगर जहां बुद्ध के चरण पड़ते हैं, वहां हरियाली फैलती है, इतना सूचक है। वहां जीवन हरा होता है। वहां जीवन में नयी उमंग आती है, नया प्रसाद बरसता है। बुद्ध एक वर्षा हैं अमृत की, इस बात को कहने का यह काव्यात्मक ढंग हुआ, इससे ज्यादा नहीं।
जीसस को सूली लगी और सूली के बाद वे पुनरुज्जीवित हुए। अब यह पुनरुज्जीवित होना कोई ऐतिहासिक घटना नहीं है, यह पुनरुज्जीवित होना एक गहन प्रतीक है, काव्य है। इतना ही कहा जा रहा है कि जीसस जैसे व्यक्ति की मृत्यु हो ही नहीं सकती। मृत्यु तो अज्ञानियों की होती है। जिन्होंने मान रखा है कि हम देह हैं, वे मरते हैं। जिन्होंने जान लिया कि हम देह के भीतर अदेही हैं, वे कैसे मर सकते हैं?
उनकी तो सूली से भी नये जीवन का ही प्रारंभ होता है। उनकी तो सूली भी सिंहासन है। उनकी मृत्यु नहीं होती। वे तो जीते अमृत में हैं, मरते अमृत में हैं। उनका अमृत जारी रहता है, अमृत की धारा बहती रहती है… देह में तो देह में, देह में नहीं तो देह के बाहर।
लेकिन लोग इनको ऐतिहासिक तथ्य सिद्ध करने की कोशिश में लग जाते हैं। और तब अड़चन हो जाती है। मैंने तुमसे कुछ ही दिन पहले कहा कि महावीर को काटा सर्प ने तो दूध निकला। अब ऐसे जैन हैं जो यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि दूध निकला। वे खुद भी नासमझी करते हैं और दूसरों को भी नासमझी करने का आवाहन देते हैं। इतना ही जाहिर है कि दूध प्रतीक है प्रेम का। जब मां के पेट में बच्चा आता है तो उसके प्रेम के आविर्भाव में उस बच्चे के पोषण के लिए मां के स्तन दूध से भर जाते हैं। मां बहने लगती है बच्चे के लिए दूध की धारा में। मां के दूध में बच्चे को जीवन मिलने लगता है। प्रेम जीवनदायी है! बस इतना ही प्रतीक है इस कथा में कि सांप ने भी काटा महावीर को तो भी महावीर के हृदय में करुणा ही है, प्रेम ही है। इसको कैसे कहें कविता में! इसको कविता में ऐसे कहा कि काटा तो महावीर की देह से खून नहीं निकला, दूध निकला। निकलना था खून, निकला दूध। यह तो कविता है। प्यारी कविता है, अगर कविता की तरह समझो। मगर अगर जिद मानकर बैठ जाओ कि यह कोई वैज्ञानिक वक्तव्य है तो तुमने मूढ़ता कर ली।
हमने उन सारे अपूर्व पुरुषों के पास कहानियां गढ़ी हैं। वे सब कहानियां बड़ी प्रीतिकर हैं। उन कहानियों को तुम इशारे समझना। सही-गलत का संबंध ही नहीं है। उनसे कुछ इंगित…। और इंगित पकड़ में आ जाये, कहानियां पीछे छूट जायेंगी। तुम एक यात्रा पर संलग्न हो जाओगे।
फिक्र छोड़ो इसकी कि गोरख कहां पैदा हुए, कब पैदा हुए। यह काम पंडितों पर छोड़ दो। आखिर उनको बेचारों को भी कुछ काम चाहिए न! यह शोधकर्ताओं पर छोड़ दो, नहीं तो कौन उनको पी एच. डी. देगा। गोरख ने बड़ी कृपा की, लिखकर नहीं गये। लिख जाते तो न मालूम कितने लोगों की डाक्टरेट रह जाती! यह भी उनकी अनुकंपा है, कुछ खबर नहीं दे गये, कहां पैदा हुए। न मालूम कितने लोग संलग्न हैं, इसी काम में संलग्न हैं। मूढ़ों को कुछ तो चाहिए संलग्न होने के लिए! समझदार इन बातों में न उलझें। गोरख का संदेश पहचानो। गोरख के सूत्रों को हृदय में उतरने दो। हुए हों गोरख तो ठीक, न हुए हों तो चलेगा, सूत्र महत्वपूर्ण हैं। गोरख के होने न होने से सूत्रों की महत्ता में कोई भेद नहीं पड़ता।
क्या तुम सोचते हो कृष्ण हुए हों तो गीता ज्यादा मूल्यवान हो जायेगी और कृष्ण न हुए हों तो गीता का मूल्य खो जायेगा? क्या पागलपन की बात करते हो? आइंस्टीन हुए हों तो सापेक्षवाद का सिद्धात ज्यादा मूल्यवान हो जायेगा? आइंस्टीन के होने से सापेक्षवाद के सिद्धात में कुछ बल मिलता है? कोई बल नहीं मिलता। आइंस्टीन हुए हों कि न हुए हों, सापेक्षवाद का सिद्धात अपने-आप में सबल है। उसकी भित्ति उसमें ही है। किसने उसे जन्म दिया, यह बात गौण है।
तुम्हें पता है किसने पहली दफा आग जलाई? वैज्ञानिक कहते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा आविष्कार है आग का; किसने सबसे पहले जलाई, हमें कुछ पता नहीं। हो गये होंगे कोई कम-से-कम पचास हजार साल या उससे भी ज्यादा, जब किसी आदमी ने आग जलाई होगी। उसका नाम तो किसी को भी पता नहीं है। लेकिन उसके नाम के न होने से क्या तुम आग पर रोटी नहीं सेंक लेते हो? क्या जब सर्दी लगती है तो आग के पास बैठकर ताप नहीं लेते हो? उससे क्या लेना-देना है कि अ था, कि ब था, कि स था, काला था कि गोरा था, हिंदुस्तान में घटी बात कि अफ्रीका में घटी बात? कहां सबसे पहले आग जली, किसने जलाई, क्या भेद पड़ता है? हम जानते हैं कि आग बहुमूल्य है अपने-आप में।
ऐसी ही साधना की प्रक्रियाएं हैं-आग हैं, जलती आग; अगर हिम्मत हो, छलांग लगा लो।
मरौ वे जोगी मरौ मरौ मरण है मीठा।
तिस मरणी मरौ जिस मरणी मरि गोरष दीठा।।
उसी आग में तुम भी कूद जाओ, जिसमें गोरख कूद गये। उसी निर्विचार की अग्नि में तुम भी भस्मीभूत हो जाओ। और तुम्हारी भस्मियों से उठेगा एक नया रूप, एक नया आलोक, एक नया जीवन, जो शाश्वत है।
मरौ है जोगी मरौ
ओशो
Friday, November 6, 2015
A research overview:-- Psychological Properties Of Colours
There are four psychological primary colours - red, blue, yellow and green. They relate respectively to the body, the mind, the emotions and the essential balance between these three. The psychological properties of the eleven basic colours are as follows (Learn how you can harness the positive effects of the colours, by joining us on one of our courses):
RED. Physical
Positive: Physical courage, strength, warmth, energy, basic survival, 'fight or flight', stimulation, masculinity, excitement.
Negative: Defiance, aggression, visual impact, strain.
Being the longest wavelength, red is a powerful colour. Although not technically the most visible, it has the property of appearing to be nearer than it is and therefore it grabs our attention first. Hence its effectiveness in traffic lights the world over. Its effect is physical; it stimulates us and raises the pulse rate, giving the impression that time is passing faster than it is. It relates to the masculine principle and can activate the "fight or flight" instinct. Red is strong, and very basic. Pure red is the simplest colour, with no subtlety. It is stimulating and lively, very friendly. At the same time, it can be perceived as demanding and aggressive.
BLUE. Intellectual.
Positive: Intelligence, communication, trust, efficiency, serenity, duty, logic, coolness, reflection, calm.
Negative: Coldness, aloofness, lack of emotion, unfriendliness.
Blue is the colour of the mind and is essentially soothing; it affects us mentally, rather than the physical reaction we have to red. Strong blues will stimulate clear thought and lighter, soft blues will calm the mind and aid concentration. Consequently it is serene and mentally calming. It is the colour of clear communication. Blue objects do not appear to be as close to us as red ones. Time and again in research, blue is the world's favourite colour. However, it can be perceived as cold, unemotional and unfriendly.
YELLOW. Emotional
Positive: Optimism, confidence, self-esteem, extraversion, emotional strength, friendliness, creativity.
Negative: Irrationality, fear, emotional fragility, depression, anxiety, suicide.
The yellow wavelength is relatively long and essentially stimulating. In this case the stimulus is emotional, therefore yellow is the strongest colour, psychologically. The right yellow will lift our spirits and our self-esteem; it is the colour of confidence and optimism. Too much of it, or the wrong tone in relation to the other tones in a colour scheme, can cause self-esteem to plummet, giving rise to fear and anxiety. Our "yellow streak" can surface.
GREEN. Balance
Positive: Harmony, balance, refreshment, universal love, rest, restoration, reassurance, environmental awareness, equilibrium, peace.
Negative: Boredom, stagnation, blandness, enervation.
Green strikes the eye in such a way as to require no adjustment whatever and is, therefore, restful. Being in the centre of the spectrum, it is the colour of balance - a more important concept than many people realise. When the world about us contains plenty of green, this indicates the presence of water, and little danger of famine, so we are reassured by green, on a primitive level. Negatively, it can indicate stagnation and, incorrectly used, will be perceived as being too bland.
VIOLET. Spiritual
Positive: Spiritual awareness, containment, vision, luxury, authenticity, truth, quality.
Negative: Introversion, decadence, suppression, inferiority.
The shortest wavelength is violet, often described as purple. It takes awareness to a higher level of thought, even into the realms of spiritual values. It is highly introvertive and encourages deep contemplation, or meditation. It has associations with royalty and usually communicates the finest possible quality. Being the last visible wavelength before the ultra-violet ray, it has associations with time and space and the cosmos. Excessive use of purple can bring about too much introspe ction and the wrong tone of it communicates something cheap and nasty, faster than any other colour.
ORANGE.
Positive: Physical comfort, food, warmth, security, sensuality, passion, abundance, fun.
Negative: Deprivation, frustration, frivolity, immaturity.
Since it is a combination of red and yellow, orange is stimulating and reaction to it is a combination of the physical and the emotional. It focuses our minds on issues of physical comfort - food, warmth, shelter etc. - and sensuality. It is a 'fun' colour. Negatively, it might focus on the exact opposite - deprivation. This is particularly likely when warm orange is used with black. Equally, too much orange suggests frivolity and a lack of serious intellectual values.
PINK.
Positive: Physical tranquillity, nurture, warmth, femininity, love, sexuality, survival of the species.
Negative: Inhibition, emotional claustrophobia, emasculation, physical weakness.
Being a tint of red, pink also affects us physically, but it soothes, rather than stimulates. (Interestingly, red is the only colour that has an entirely separate name for its tints. Tints of blue, green, yellow, etc. are simply called light blue, light greenetc.) Pink is a powerful colour, psychologically. It represents the feminine principle, and survival of the species; it is nurturing and physically soothing. Too much pink is physically draining and can be somewhat emasculating.
GREY.
Positive: Psychological neutrality.
Negative: Lack of confidence, dampness, depression, hibernation, lack of energy.
Pure grey is the only colour that has no direct psychological properties. It is, however, quite suppressive. A virtual absence of colour is depressing and when the world turns grey we are instinctively conditioned to draw in and prepare for hibernation. Unless the precise tone is right, grey has a dampening effect on other colours used with it. Heavy use of grey usually indicates a lack of confidence and fear of exposure.
BLACK.
Positive: Sophistication, glamour, security, emotional safety, efficiency, substance.
Negative: Oppression, coldness, menace, heaviness.
Black is all colours, totally absorbed. The psychological implications of that are considerable. It creates protective barriers, as it absorbs all the energy coming towards you, and it enshrouds the personality. Black is essentially an absence of light, since no wavelengths are reflected and it can, therefore be menacing; many people are afraid of the dark. Positively, it communicates absolute clarity, with no fine nuances. It communicates sophistication and uncompromising excellence and it works particularly well with white. Black creates a perception of weight and seriousness.
It is a myth that black clothes are slimming:
Which of these boxes do you think is bigger/heavier?
The truth behind the myth is that black is the most recessive colour a matter of not drawing attention to yourself, rather than actually making you look slimmer.
WHITE.
Positive: Hygiene, sterility, clarity, purity, cleanness, simplicity, sophistication, efficiency.
Negative: Sterility, coldness, barriers, unfriendliness, elitism.
Just as black is total absorption, so white is total reflection. In effect, it reflects the full force of the spectrum into our eyes. Thus it also creates barriers, but differently from black, and it is often a strain to look at. It communicates, "Touch me not!" White is purity and, like black, uncompromising; it is clean, hygienic, and sterile. The concept of sterility can also be negative. Visually, white gives a heightened perception of space. The negative effect of white on warm colours is to make them look and feel garish.
BROWN.
Positive: Seriousness, warmth, Nature, earthiness, reliability, support.
Negative: Lack of humour, heaviness, lack of sophistication.
Brown usually consists of red and yellow, with a large percentage of black. Consequently, it has much of the same seriousness as black, but is warmer and softer. It has elements of the red and yellow properties. Brown has associations with the earth and the natural world. It is a solid, reliable colour and most people find it quietly supportive - more positively than the ever-popular black, which is suppressive, rather than supportive.
Effect of Different Colors on Human Mind and Body
Take a minute and imagine the world around you without colors, how boring and unexciting life would be. Colors play a vital role in our daily lives and it has been proven that our activities and responses are influenced by them. Kenneth Fehrman, co-author of the book, Color: The Secret Influence states that, “Most people are unaware of the profound effect color has on their behavior.”
Every color has a unique effect on individuals and stimulates various responses e.g. the fast food companies use red, yellow and orange colors in their restaurants and product packaging as these colors are found to be helpful in increasing appetite. A research by the University of British Columbia has proven that blue color enhances creativity whereas; the color red helps to be focused and has a positive effect on memory. The Blackfriars Bridge made of black iron when painted green, showed a decline in suicide rate up to 30%. Studies show that pink color is beneficial for stimulating responses from females whereas dark green color has a motivational effect on males. Let’s take a look at how some colors affect our mind and body.
Every color has a unique effect on individuals and stimulates various responses
RED
The color Red is the most vibrant of all the colors. It stimulates the adrenal gland and the neurons. This color is ideal to wear for a walk or exercise as it is an invigorating color. However, too much exposure to the color red can cause stress; it may also cause frustration and provoke anger.
The color red symbolizes love; it stimulates heartbeat and breathing. Researches show that men feel more affectionate towards women wearing red. Wear red and you might get lucky in grabbing attention but may appear heavier than your original body size.
“If one says ‘Red’ – the name of color – and there are fifty people listening, it can be expected that there will be fifty reds in their minds. And one can be sure that all these reds will be very different.” – Josef Albers
YELLOW
Have you ever wondered why Smiley is yellow? The reason is that yellow helps to release a chemical in the brain called Serotonin, essential for causing a happy mood.
Studies have proven that yellow color enhances concentration and gives the brain and nervous system a “ wake-up call”. Too much of yellow color can cause fatigue. Studies show that babies cry more in yellow rooms. It is the most difficult color on the eye and people might lose temper more often in yellow rooms. It is also beneficial for speeding up metabolism and is a common food color.
“Yellow is capable of charming God.” – Vincent Van Gogh
BLUE
If you want some creative juices spilling out of your mind then get exposed to the color Blue. It is believed to have a soothing effect on human mind as it helps to produce some calming chemicals in the brain. However, too much exposure to this color may cause depression. Blue is used a lot in cooperate sector as it denotes loyalty. It is also proved that materials in blue color appear to be light in weight; this is one of the reasons why weightlifters find it easier to handle heavy weights in gyms painted blue.
The color blue is a non food color as it gives a toxic effect to edibles; moreover research has proven that when people are served with food dyed in blue they tend to lose appetite. For weight watchers blue kitchen can be very helpful, studies reveal that diners eating in a blue room eat 3 times less calories than in rooms painted yellow and red.
“Blue color is everlastingly appointed by the deity to be a source of delight.” – John Ruskin
BLACK
Black signifies power and authority, it represents knowledge and intelligence. It is the most popular color in the fashion industry because of its association with style and it makes people wearing it look thin. A food product packed in black color may bring in more profits because it is perceived to be higher in quality. Black is the most aggressive color, studies found that hockey teams wearing black jerseys were penalized more for fouls.
“I’ve been 40 years discovering that the queen of all colors is black.” – Pierre-Auguste Renoir
WHITE
White is considered to be the most neutral color. Baby products come usually in white to symbolize innocence and cleanliness. White is used by doctors and nurses to show sterility. In clothes, white is associated with sophistication. A research showed that people having hand tremors didn’t shake much in white rooms proving that the color has a calming effect.
“White covers a multitude of sins.” – Jonathan Milne
GREEN
Green represents nature and currently it is the most popular color that is being used in interior decoration. The reason is its soothing effect on the eyes. Green gives a relaxes the body and alleviates stress. Researchers have proven that the color improves vision. This could be the reason why classroom boards are in green color. Middle aged brides wear green to signify fertility. Green has a healing and hygienic effect and for this reason it is used a lot in hospitals.
People working in green offices have proven to be more satisfied with their jobs. Other surveys have also found that consumers spend more time shopping in shops painted green.
“Green how I want you green. Green wind. Green branches.” – Federico Garcia Lorca
PINK
Pink color is considered to be the most romantic of all the colors. It is the most tranquilizing color and is associated with femininity. Often sports teams use pink color to paint the locker rooms for the opposing team. It has been found beneficial in reducing anger and anxiety and this is the reason why prisons in US are painted pink to keep the prisoners calm.
Dr Alexander Schauss, from American Institute of Biosocial and Medical Research explains that, “Even if a person tries to be angry or aggressive in the presence of pink, he can’t. The heart muscles can’t race fast enough.”
PURPLE
Purple color symbolizes royalty, luxury and sophistication. People wearing purple color are perceived to be wealthy. It develops spirituality and deep thoughts. Purple color has also been found helpful to intensify sexual activity.
ORANGE
Something you need to turn up your bad mood? Orange is the color for you. It is derived by the combination of red and yellow color therefore it has combining effects of the two. It stimulates mental abilities and is an ideal color to wear for exams. It is also useful for increasing appetite.
“Orange is the happiest color” – Frank Sinatra
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EFFECT OF COLOR ON MEMORY
“A recent study examined differences in peoples’ recall of words and memory for colors. Results show that people recall color to a higher degree. When people were asked to recall objects versus color, color memory was significantly greater,” Brain Based Biz said.
“Even when people attempted to remember words or objects, color had the greatest affect on recall,” the article said.
COLORS THAT MAKE A DIFFERENCE
Here are a few colors and the corresponding impacts they have on the brain:
Dark Blue – associated with night, often leads to passivity
Blue and Green – calming – blue is the most preferred color across cultures
Red and Orange – arousing
Red – may stimulate excitement and is used to light gambling casinos
Pink – interestingly calmed inmates in institutions”
From: Brain Based Biz
A TEST IN RETAIL THERAPY
Because color can alter your mood, it is no surprise that what you buy can also be affected by what you see.
“Outdoor colors, such as green and blue, are associated with sporting goods stores and even though red may stimulate approach behavior in general, it may not be appropriate for retail environments though it works well for lighting casinos,” the branding blog said.
This experience also correlates with psychology.
“One of the key results from cognitive psychology is that our perception of life is subjective. We colour [color] what we experience by the current state and mood that we are in,” Spirituality and Western Psychology, from Easimatch.com said.
LEFT AND RIGHT BRAIN
The functions of the left brain and the right brain are also crucial to color and the brain. The brain has two hemispheres—a right side and a left side.
“For most humans, the left side is tied to language and the right more to visual perception, imagery, and emotion,” the Spirituality and Western Psychology article said.
IT’S ALL ABOUT THE COLOR
Overall, consumers will use quick brain power to determine whether or not they will make a purchase at a clothing store.
“Research shows people make up their minds to buy within 90 seconds of their initial interactions with either people or products. About 62-90 percent of the assessment is based on colors alone,” the branding blog said.
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