Thursday, November 26, 2015

प्रश्न:-- काज में, आफिस में, दुकान में कार्य करते समय कैसे आचरण में लायें? होश में रहने पर ध्यान जाये तो काम कैसे हो? काम में होते हुए होश का क्या स्थान और साधना हो सकती है?

काज में, आफिस में, दुकान में कार्य करते समय कैसे आचरण में लायें? होश में रहने पर ध्यान जाये तो काम कैसे हो? काम में होते हुए होश का क्या स्थान और साधना हो सकती है?

दो तीन बातें खयाल में लेनी चाहिए।

एक: होश कोई अलग प्रक्रिया नहीं है। आप भोजन कर रहे हैं, तो होश कोई अलग प्रक्रिया नहीं है कि भोजन करने में बाधा डाले। जैसे मैं आपसे कहूं कि भोजन करें और दौड़ें। तो दोनों में से एक ही हो सकेगा, दौड़ना या भोजन करना। आपसे मैं कहूं कि दफतर जायें, तब सोयें, तो दोनों में से एक ही हो सकेगा, सोयें या दफतर जायें।

होश कोई प्रतियोगी प्रक्रिया नहीं है। भोजन कर सकते हैं, होश को रखते हुए या बेहोशी में। होश भोजन के करने में बाधा नहीं बनेगा। होश का अर्थ इतना ही है कि भोजन करते समय मन कहीं और न जाये, भोजन करने में ही हो। मन कहीं और चला जाये तो भोजन बेहोशी में हो जायेगा। आप भोजन कर रहे हैं, और मन दफतर में चला गया। शरीर भोजन की टेबल पर, मन दफतर में, तो न तो दफतर में हैं आप, क्योंकि वहां आप हैं नहीं, और न भोजन की टेबल पर हैं आप, क्योंकि मन वहां नहीं रहा। तो वह जो भोजन कर रहे हैं, वह बेहोश है, आपके बिना हो रहा है।

इस बेहोशी को तोड़ने की प्रक्रिया है होश, भोजन करते वक्त मन भोजन में ही हो, कहीं और न जाये। सारा जगत जैसे मिट गया, सिर्फ यह छोटा-सा काम भोजन करने का रह गया। पूरी चेतना इसके सामने है। एक कौर भी आप बनाते हैं, उठाते हैं, मुंह में ले जाते हैं, चबाते हैं, तो यह सारा होशपूर्वक हो रहा है। आपका सारा ध्यान भोजन करने में ही है, इस फर्क को आप ठीक से समझ लें।

अगर मैं आपसे कहूं कि भोजन करते वक्त राम-राम जपें, तो दो क्रियाएं हो जायेंगी। राम-राम जपेंगे तो भोजन से ध्यान हटेगा। भोजन पर ध्यान लायेंगे तो राम-राम का ध्यान टूटेगा। मैं आपको कहीं और ध्यान ले जाने को नहीं कह रहा हूं, जो आप कर रहे हैं उसको ही ध्यान बना लें। इससे आपके किसी काम में बाधा नहीं पड़ेगी, बल्कि सहयोग बनेगा। क्योंकि जितने ध्यानपूर्वक काम किया जाये, उतना कुशल हो जाता है।

काम की कुशलता ध्यान पर निर्भर है। अगर आप अपने दफतर में ध्यानपूर्वक कर रहे हैं, जो भी कर रहे हैं तो आपकी कुशलता बढ़ेगी, क्षमता बढ़ेगी, काम की मात्रा बढ़ेगी और आप थकेंगे नहीं। और आपकी शक्ति बचेगी। और आप दफतर से भी ऐसे वापस लौटेंगे जैसे ताजे लौट रहे हैं। क्योंकि जब शरीर कुछ और करता है, मन कुछ और करता है तो दोनों के बीच तनाव पैदा होता है। वही तनाव थकान है। आप होते हैं दफतर में, मन होता है सिनेमागृह में। आप होते हैं सिनेमा में, मन होता है घर पर, तो मन और शरीर के बीच जो फासला है वह तनाव ही आपको थकाता है और तोड़ता है।

जब आप जहां होते हैं वहीं मन होता है। इसलिए आप देखें, जब आप कोई खेल-खेल रहे होते हैं तो आप ताजे होकर लौटते हैं। खेल में शक्ति लगती है, लेकिन खेल के बाद आप ताजे होकर लौटते हैं। बड़ी उल्टी बात मालूम पड़ती है। आप बेडमिंटन खेल रहे हैं कि आप कबड्डी खेल रहे हैं, या कुछ भी, या बच्चों के साथ बगीचे में दौड़ रहे हैं। शक्ति व्यय हो रही है, लेकिन इस दौड़ने के बाद आप ताजे होते हैं। और यही काम अगर आपको करना पड़े तो आप थकते हैं।

काम और खेल में एक ही फर्क है, खेल में पूरा ध्यान वहीं मौजूद होता है, काम में पूरा मौजूद नहीं होता। इसलिए अगर आप किसी को नौकरी पर रख लें खेलने के लिए, तो वह खेलने के बाद थककर जायेगा। क्योंकि वह फिर खेल नहीं है, काम है। और जो होशियार हैं, वे अपने काम को भी खेल बना लेते हैं। खेल का मतलब यह है कि आप जो भी कर रहे हैं, इतने ध्यान, इतनी तल्लीनता, इतने आनंद से डूबकर कर रहे हैं कि उस करने के बाहर कोई संसार नहीं बचा है। आप इस करने के बाहर ज्यादा ताजे, सशक्त लौटेंगे। और कुशलता बढ़ जायेगी।

महावीर वाणी

ओशो

Wednesday, November 25, 2015

मैं कोई मुल्क नहीं हूं कि जला दोगे मुझे :-- ओशो

मैं कोई मुल्क नहीं हूं कि जला दोगे मुझे

कोई दीवार नहीं हूं कि गिरा दोगे मुझे

कोई सरहद भी नहीं हूं कि मिटा दोगे मुझे

यह जो दुनिया का पुराना नक्शा

मेज पर तुमने बिछा रक्खा है

इसमें कावाक लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं

तुम मुझे इसमें कहा ढूंढते हो

मैं इक अरमान हूं दीवानों का

सख्त—जां ख्वाब हूं कुचले हुए इंसानों का

लूट जब हद से सिवा होती है

जुल्म जब हद से गुजर जाता है

मैं अचानक किसी कोने में नजर आता हूं

किसी सीने से उभर आता हूं आज से पहले भी तुमने मुझे देखा होगा

कभी मशरिक में कभी मगरिब में

कभी शहरों में कभी गौवों में

कभी बस्ती में कभी जंगल में

मेरी तारीख ही तारीख है, जुगराफिया कोई भी नहीं

और तारीख भी ऐसी जो पढ़ाई तो जा नहीं सकती

लोग छुप—छुप के पढ़ा करते हैं

कि मैं गालिब कभी मगलूब हुआ

कातिलों को कभी सूली पे चढ़ाया मैंने

और कभी आप ही मसलूब हुआ

फर्क इतना है कि कातिल मेरे मर जाते हैं

मैं न मरता हूं न मर सकता हूं

धर्म ऐसा शाश्वत विद्रोह है, जो न मरता है, न मर सकता है। लौट—लौट आता है। एक बुद्ध बिदा होता है कि तुम जल्दी ही फिर अपनी नींद में खोने लगते हो। तुम जल्दी से अपनी चादर ओढ़ लेते हो, अपने तकिए सम्हाल लेते हो, तुम फिर निश्चित होकर सपना देखने लगते हो। लेकिन किसी न किसी कोने से बगावत फिर उभर आती है। किसी न किसी कोने से परमात्मा फिर आवाज देता है। परमात्मा तुम से हारता नहीं। और परमात्मा तुम से ऊबता भी नहीं। और परमात्मा तुम्हारे प्रति उपेक्षा से भी नहीं भरता है। तुम लाख भटको, तुम्हारी हर भटकन उसके लिए एक चुनौती है। वह फिर लौट आता है।

कृष्ण ने कहा न गीता में, मैं फिर—फिर आऊंगा—संभवामि युगे—युगे। जब—जब अंधेरा होगा, और जब—जब लोगों का मन धर्म के प्रति ग्लानि से भर जाएगा, और जब—जब शुभ पर अशुभ की प्रतिष्ठा होगी, और जब—जब सज्जन को असज्जन सताएगा, मैं आऊंगा। यह कृष्ण का ही वचन नहीं है, कृष्ण धर्म की तरफ से बोल रहे हैं। कोई कृष्ण आ जाएंगे, ऐसा नहीं है, लेकिन किसी कोने से धर्म उभर आएगा, बगावत उठेगी, कोई न कोई सोयों में से जाग जाएगा, कहीं से किरण फूटेगी।

धर्म न तो मरता है, न मारा जा सकता है; लेकिन जिन्हें भी धर्म को पाना हो, उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्म जब भी आता है तो विद्रोह की तरह आता है। विद्रोह के ही रूप में आता है। वही उसकी देह है। और अगर तुम विद्रोह को न पहचान सको तो तुम धर्म से चूकते चले जाओगे। तुम गीताओ में सिर मारो और कुरानों की पूजा करो और बाइबिलों में आखें गड़ाए—गड़ाए अंधे हो जाओ, धर्म तुम्हें नहीं मिलेगा। धर्म जब आता है तब बगावत की तरह आता है। गीता, कुरान और बाइबिल कभी बगावत थे, मगर वह बात गई। अब तुम लाश ढोते हो। अब तुम्हें फिर कहीं खोजना होगा कोई जो जागा हुआ हो। तुम्हें फिर किसी क्राइस्ट का हाथ पकड़ना होगा। और कठिनाई यही है कि बाइबिल प्यारी लगती है और क्राइस्ट बहुत कष्टकर मालूम होते है।
बाइबिल प्यारी लगती है क्योंकि बाइबिल तुम्हें बदल ही नहीं सकती। तुम बाइबिल का तकिया बना लेते हो और मजे से सो जाते हो। सर्दी ज्यादा हो तो बाइबिल का कंबल बना लेते हो और ओढ़ लेते हो, मजे से सो जाते हो। क्राइस्ट का न तो तुम तकिया बना सकोगे और न कंबल बना सकोगे। अगर नींद न आती हो तो तुम बाइबिल की गोलियां बना लेते हो—शामक दवाएं, टैरक्युलाइजर्स—और उनको पीकर सो जाते हो, और गहरी नींद मे खो जाते हो। तुम जीसस का टैरक्युलाइजर न बना सकोगे। तुम जीसस से नींद का कोई उपाय न खोज सकोगे।
इसलिए लोग जीवित सदगुरु से भागते हैं। और जब सदगुरु मर जाता है तब उसकी पूजा करते हैं। अजीब रिवाज है। अजीब रिवाज है तुम्हारा! अजीब ढंग है! अजीब ढर्रा है तुम्हारा! क्राइस्ट मौजूद हों तो सूली लगाओ, और जब मर जाएं तो सारी दुनिया ईसाई हो जाती है। मोहम्मद जब हों तो तुम उन्हें एक गांव में शांति से नहीं बैठने देते—मोहम्मद की जिंदगीभर एक गांव से दूसरे गाव में भागने मे बीती। और जब मोहम्मद मर जाते हैं, तो तुम लाखों मस्जिदें बनाते हो। करोड़ों लोग मोहम्मद के चरणों में सर झुकाते है। करोड़ों लोगो के लिए मोहम्मद हृदय की गहरी से गहरी धुन हो जाते हैं। मगर यह बड़ा मजा है। इस मजे को देखो, पहचानो।

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—67 (ओशो)



‘यह जगत परिवर्तन का है, परिवर्तन ही परिवर्तन का। परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।’
पहली बात तो यह समझने की है कि तुम जो भी जानते हो वह परिवर्तन है, तुम्हारे अतिरिक्त जानने वाले के अतिरिक्त सब कुछ परिवर्तन है। क्या तुमने कोई ऐसी चीज देखी है। जो परिवर्तन न हो। जो परिवर्तन के अधीन न हो। यह सारा संसार परिवर्तन की घटना है।
हिमालय भी बदल रहा है। हिमालय का अध्यन करने वाले वैज्ञानिक कहते है कि हिमालय बढ़ रहा है। बड़ा हो रहा है। हिमालय संसार का सबसे कम उम्र का पर्वत है। वह अभी बच्चा है और बढ़ रहा है। वह अभी प्रौढ़ नहीं हुआ है। वह अभी उस अवस्था को नहीं प्राप्त हुआ है। जहां पहूंच कर ह्रास या गिरावट शुरू होती है। हिमालय बच्चे जैसा है। विंध्याचल संसार के सबसे पुराने पर्वतों में हैं। कुछ तो उसे दुनियां का सबसे पुराना पर्वत मानते है। सदियों से वह अपने बुढ़ापे के कारण क्षीण हो रहा है। मर रहा है।
तो इतना स्थिर और अडिग और दृढ़ मालूम पड़ने वाला हिमालय भी बदल रहा है। वह बस पत्थरों कीं नदी जैसा नहीं है। पत्थर होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। पत्थर भी प्रवाहमान है, बह रहा है। तुलनात्मक दृष्टि से सब कुछ बदल रहा है। लेकिन ऐसा सापेक्षत: है।
कोई भी चीज, जिसे तुम जान सकते हो बदलाहट के बिना नहीं है। मेरी बात खयाल में रहे। जिसे तुम जानते हो वह वस्तु नित्य बदल रही है। जाननेवाले के अतिरिक्त कुछ भी नित्य नहीं है। शाश्वत नही है। लेकिन जानने वाला सदा पीछे है। वह सदा जानता है; वह कभी जाना नहीं जाता। वह कभी आब्जेक्ट्स नहीं बन सकता; वह सदा सब्जैक्ट ही रहता है। तुम जो कुछ भी करते हो या जानते हो, जाननेवाला सदा उससे पीछे है। तुम उसे नहीं जान सकते हो।
और जब मैं कहता हूं कि तुम जाननेवाले को नहीं जान सकते, तो इससे परेशान मत होओ। जब मैं कहता हूं कि तुम उसे नहीं जान सकते हो तो उसका मतलब है कि तुम उसे विषय की तरह नहीं जान सकते हो। मैं तुम्हें देखता हूं , लेकिन मैं उसी तरह अपने को कैसे देख सकता हूं। यह असंभव है। क्योंकि ज्ञान के लिए दो चीजें जरूरी है। ज्ञाता और ज्ञेय। तो जब मैं तुम्हें देखता हूं तो तुम ज्ञेय हो और मैं ज्ञाता हूं। और दोनों के बीच ज्ञान सेतु की तरह है। लेकिन ज्ञान का यह सेतु कहां बनेगा। जब मैं अपने को ही देखता हूं। जब मैं अपने को ही जानने की कोशिश करता हूं। वहां तो केवल मैं ही हूं, पूरी तरह अकेला मैं हूं। दूसरा किनारा बिलकुल अनुपस्थित है। फिर सेतु कहां निर्मित किया जाए? स्वयं को जाना कैसे जाएं?
तो आत्मज्ञान एक नेति-नेति प्रक्रिया है। तुम अपने को सीधे-सीधे नहीं जान सकते; तुम सिर्फ ज्ञान के विषयों को हटाते जा सकते हो। ज्ञान के विषयों को एक-एक करके छोड़ते चले जाओ। और जब ज्ञान का कोई विषय न रह जाए, जब जानने को कुछ भी न रह जाए। सिर्फ एक शून्य, एक खाली पन रह जाए—और यही ध्यान है। ज्ञान के विषयों को छोड़ते जाना—तब एक क्षण आता है जब चेतना तो है लेकिन जानने के लिए कुछ नहीं है। जानना तो है, लेकिन जानने को कुछ नहीं बचता है। तब जानने की सहज-शुद्ध ऊर्जा रहती है। लेकिन जानने को कुछ नहीं बचता है। कोई विषय नहीं रहता है। उस अवस्था में जब जानने को कुछ नहीं रहता, तुम एक अर्थों में स्वयं को जानते हो। अपने को जानते हो।
लेकिन यह ज्ञान अन्य सब ज्ञान से सर्वथा भिन्न है। दोनो के लिए एक ही शब्द का उपयोग करना भ्रामक है। इसीलिए अनेक रहस्यवादियों ने कहा है कि आत्मज्ञान शब्द विरोधाभासी है। ज्ञान सदा दूसरे को होता है। अंत: आत्म ज्ञान संभव नहीं है। जब दूसरा नहीं होता है तो कुछ होता है, तुम उसे आत्म ज्ञान कह सकते हो। लेकिन यह शब्द भ्रामक है।
तो तुम जो भी जानते हो वह परिवर्तन है। ये जो दीवारें है, ये भी निरंतर बदल रही है। और भौतिक शास्त्र भी इसका समर्थन करता है। जो दीवार है, ये स्थाई मालूम पड़ती है। ठहरी हुई लगती है। वह भी प्रति पल बदल रही है। एक-एक परमाणु बह रहा है। प्रत्येक चीज बह रही है। लेकिन उसकी गति इतनी तीव्र है कि उसका पता नहीं चलता है। दोपहर भी वह ऐसे लगती थी श्याम भी ऐसे लगती है।
यह सूत्र कहता है कि सभी चीजें बदल रही है। ‘यह जगत परिवर्तन का है…..।’


इस सूत्र पर ही बुद्ध का समस्त दर्शन खड़ा है। बुद्ध कहते है कि प्रत्येक चीज बहाव है, बदल रही है। क्षणभंगुर है। और यह बात प्रत्येक व्यक्ति को जान लेना चाहिए। बुद्ध का सारा जोर इसी एक बात पर है; उनकी पूरी दृष्टि इसी बात पर आधारित है।
तुम्हें एक चेहरा दिखाई देता है, बहुत सुंदर है। और जब तुम सुंदर रूप को देखते हो तो भाव होता है कि यह रूप सदा ही ऐसा रहेगा। इस बात को ठीक से समझ लो ऐसी अपेक्षा कभी मत करो। और अगर तुम जानते हो कि यह रूप तेजी से बदल रहा है, कि यह इस क्षण सुंदर है और अगले क्षण कुरूप हो जायेगा। तो फिर आसक्ति कैसे पैदा होगी? असंभव है। एक शरीर को देखो,वह जीवित है; अगले क्षण वह मृत हो सकता है। अगर तुम परिवर्तन को समझो तो सब व्यर्थ है।
बुद्ध ने अपना महल छोड़ दिया, परिवार छोड़ दिया। सुंदर पत्नी छोड़ दी, प्यारा पुत्र छोड़ दिया। और जब किसी ने पूछा कि क्यों छोड़ रहे हो, तो उन्होंने कहां: ‘जहां कुछ भी स्थाई नहीं है,वहां रहने का क्या प्रयोजन? बच्चा एक न एक दिन मर जायेगा।’ और बच्चे का जन्म उसी रात हुआ था। उसके जन्म के कुछ घंटे बाद ही उन्होंने उसे अंतिम बार देखा। अपनी पत्नी के कमरे में गये। पत्नी की पीठ दरवाजे की और थी और वह बच्चे को अपनी बांहों में लिए सो रही थी। बुद्ध ने अलविदा कहना चाहा। लेकिन वे झिझके। उन्होंने कहा: ‘एक क्षण उनके मन में यह विचार कौंधा कि बच्चे के जन्म के कुछ घंटे ही हुए है। मैं उसे अंतिम बार देख हूं। तब उनके मन ने कहां, क्या प्रयोजन है, सब तो बदल रहा है। आज बच्चा पैदा हुआ है। कल मर जायेगा। एक दिन पहले यह नहीं था, अभी वह है। और एक दिन फिर नहीं रहेगा। तो क्या प्रयोजन है सब बदल रहा है।’ वे मुड़े और विदा हो गये।
जब किसी ने पूछा कि आपने क्यों सब कुछ छोड़ दिया? मैं अपनी खोज में हूं। जो कभी नहीं बदलता,जो शाश्वत है। यदि मैं परिवर्तनशील के साथ अटका रहूंगा। तो निराशा ही हाथ आयेगी। क्षण भंगुर से आसक्त होना मूढ़ता है। वह कभी ठहरने वाला नहीं है। मैं मूढ़ नहीं हूं। मैं तो उसकी खोज कर रहा हूं जो कभी नहीं बदलता, जो नित्य है। अगर कुछ शाश्वत है तो ही जीवन में अर्थ है, जीवन में मूल्य है। अन्यथा सब व्यर्थ है।
यह सूत्र सुंदर है। यह सूत्र कहता है। ‘परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।‘’
बुद्ध कभी दूसरा हिस्सा नहीं कहते। यह दूसरा हिस्सा बुनियादी रूप से तंत्र से आया है। बुद्ध इतना ही कहेंगे। कि सब कुछ परिवर्तनशील है। इसे अनुभव करो। और तुम्हें आसक्ति नहीं होगी। और जब आसक्ति नहीं होगी तो धीरे-धीरे अनित्य को छोड़ते-छोड़ते तुम अपने केंद्र पर पहुंच जाओगे। जो नित्य है। शाश्वत है। परिवर्तन को छोड़ते जाओ और तुम अपरिवर्तन पर केंद्र पर, चक्र के केंद्र पर पहुंच जाओगे।
इस लिए बुद्ध ने चक्र को अपने धर्म का प्रतीक बनाया है। क्योंकि चक्र चलता रहता है। लेकिन उसकी धुरी, जिसके सहारे चक्र चलता है, ठहरी रहती है। स्थाई है। तो संसार चक्र की भांति चलता रहता है। तुम्हारा व्यक्तित्व चक्र की भांति बदलता रहता है। धुरी अचल रहती है।
तंत्र कहता है कि जो परिवर्तनशील है उसे छोड़ो मत, उसमे उतरो, उसमें जाओ। उससे आसक्त मत होओ। लेकिन उसमें जीओं। उससे डरना क्या है? उसे घटित होने दो। और तुम उसमें गति कर जाओ। उसे उसके द्वारा ही विसर्जित करो। डरों मत; भागों मत। भागकर कहां जाओगे। इससे बचोगे कैसे? सब जगह तो परिवर्तन है। तंत्र कहता है,बदलाहट ही मिलेगी। सब भागना व्यर्थ है। भागने की कोशिश ही मत करो। तब करना क्या है?
आसक्ति मत निर्मित करो। तुम परिवर्तन हो जाओ। उसके साथ कोई संघर्ष मत खड़ा करो। उसके साथ बहो। नदी बह रही हे। उसके साथ बहो। तेरो भी मत। नदी को ही तुम्हें ले जाने दो। उसके साथ लड़ों मत; उससे लड़ने से तुम्हारी शक्ति बरबाद होगी। और जो होता है, उसे होने दो। नदी के साथ बहो।
इससे क्या होगा? अगर तुम नदी के साथ बिना संघर्ष किए बह सके; बिना किसी शर्त के बह सके, अगर नदी की दिशा ही तुम्हारी दिशा हो जाए, तो तुम्हें अचानक यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं, तुम्हें यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं, इसे अनुभव करो; किसी दिन नदी में उतर कर इसका प्रयोग करो। नदी में उतरो, विश्राम पूर्ण रहो और अपने को नदी के हाथों में छोड़ दो। उसे तुम्हें बहा ले जाने दो। लड़ों मत, नदी के साथ एक हो जाओ। तब अचानक तुम्हें अनुभव होगा कि चारों तरफ नदी है, लेकिन मै नदी नहीं हूं।
यदि नदी में लड़ोगे तो तुम यह बात भूल जा सकते हो। इसीलिए तंत्र कहता है: ‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’ लड़ो मत, लड़ने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि परिवर्तन तुममें नहीं प्रवेश कर सकता है। डरो नहीं; संसार में रहो। डरो मत;क्योंकि संसार तुममें प्रवेश नहीं कर सकता है। उसे जीओं। कोई चुनाव मत करो।


दो तरह के लोग है। एक वे जो परिवर्तन के जगत से चिपके रहते है। और एक वे है जो उससे भाग जाते है। लेकिन तंत्र कहता है कि जगत परिवर्तन है, इसलिए उससे चिपकना नहीं है। दोनों व्यर्थ है। इससे भागने को। वह बदल ही रहा है। तुम नहीं थे तब यह बदल रहा था। तुम नहीं रहोगे तब भी यह बदलता रहेगा। फिर इसके लिए इतना शोर गूल क्यो?
‘परिवर्तन को परिवर्तन से विसर्जित करो।’
यह एक बहुत गहन संदेश है। क्रोध को क्रोध से विसर्जित करो; काम को काम से विसर्जित करो; लोभ को लोभ से विसर्जित करो, संसार को संसार से विसर्जित करो। उससे संघर्ष मत करो, विश्रामपूर्ण रहो। क्योंकि संघर्ष से तनाव पैदा होता है; तनाव से चिंता और संताप पैदा होता है। विश्रामपूर्ण रहो। तुम नाहक उपद्रव में पड़ोगे। संसार जैसा है उसे वैसा ही रहने दो।
दो तरह के लोग है जो संसार को वैसा ही नहीं रहने देना चाहते जैसा वह है। वे क्रांतिकारी कहलाते है। वे उसे बदलेंगे ही; वे उसे बदलने के लिए जद्दोजहद करेंगे। वे उसे बदलने में अपना सारा जीवन लगा देंगे। और यह जगत अपने आप बदल रहा है। उनकी कोई जरूरत नहीं है। वे अपने को नष्ट करेंगे। दुनिया को बदलने में वे खुद खत्म होंगे। और संसार बदल ही रहा है; इसके लिए किसी क्रांति की जरूरत नहीं है। संसार स्वयं एक क्रांति है; वह बदल ही रहा है।
तुम्हें आश्चर्य होगा। की भारत में महान क्रांतिकारी क्यों नहीं पैदा हुए। यह इसी अंतदृष्टि का परिणाम है कि सब अपने आप ही बदल रहा है। उसके लिए क्रांति की कोई जरूरत नहीं है। तुम उसे बदलने के लिए क्यों परेशान होते हो। तुम न उसे बदल सकते हो और न बदलाहट को रोक सकते हो।
एक तरह का व्यक्तित्व सदा संसार को बदलने की चेष्टा करता है। धर्म की दृष्टि में वह मानसिक तल पर रूग्ण है। सच तो यह है अपने साथ रहने में उसे भय लगता है। इसलिए वह भागता फिरता है। और संसार में उलझा रहता है। राज्य को बदलना है, सरकार को बदलना है; समाज , व्यवस्था, अर्थनीति, सब कुछ को बदलना है। और इसी सब में वि मर जाएगा। और उसे आनंद का, उस समाधि का एक कण भी नहीं उपलब्ध होगा। जिसमें वह जान सकता था कि मैं कौन हूं। और संसार चलता रहेगा। संसार चक्र घूमता रहेगा। संसार चक्र ने अनेक क्रांतिकारी देखे है। और वह घूमता ही जाता है। तुम न तो इसे रोक सकते हो, और न तुम उसकी बदलाहट को तेज ही कर सकते हो।
रहस्यवादियों की, बुद्धों की यह दृष्टि है। वे कहते है कि संसार को बदलने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन बुद्धों की भी दो कोटियां है। कोई कह सता है कि संसार को बदलने की जरूरत नहीं है, लेकिन अपने को बदलने की जरूरत तो है। वह भी परिवर्तन में विश्वास करता है। वह जगत को बदलने में नहीं, लेकिन अपने में बदलने में विश्वास करता है।
लेकिन तंत्र कहता है। कि किसी को भी बदलने की जरूरत नहीं है—न संसार को और न अपने को। रहस्य का, अध्यात्म का यह गहनत्म तल है। यह उसका अंतरतम केंद्र है। तुम्हें किसी को भी बदलने की जरूरत नहीं है—न संसार को और न अपने को। तुम्हें इतना ही जानना है कि सब कुछ बदल रहा है, और तुम्हें उस बदलाहट के साथ बहाना है, उसे स्वीकार करना है।
और जब बदलने को कोई परिवर्तन नहीं है, तो तुम समग्ररतः: विश्रामपूर्ण हो सकते हो। जब तक प्रयत्न है। तुम विश्रामपूर्ण नहीं हो सकते। तब तक तनाव बना रहेगा। क्योंकि तुम्हें अपेक्षा है कि भविष्य में कुछ होने वाला है, जगत बदलने वाला है। संसार में साम्यवाद आने वाला है। या पृथ्वी पर स्वर्ग उतरने वाला है। या भविष्य में कोई ऊटोपिया आने वाला है। या तुम प्रभु के राज्य में प्रवेश करने वाले हो। स्वर्ग में देवदूत तुम्हारा स्वागत करने के लिए तैयार खड़े है—जो भी हो; तुम भविष्य में कही अटके हो। इस अपेक्षा के साथ तुम तनावपूर्ण रहोगे।
तंत्र कहता है, इन बातों को भूल जाओ। संसार बदल ही रहा है। और तुम भी निरंतर बदल रहे हो। बदलाहट ही अस्तित्व है। इसलिए बदलाहट की चिंता मत करो। तुम्हारे बिना ही बदलाहट हो रही है। तुम्हारी जरूरत नहीं है। तुम भविष्य की कोई चिंता किए बिना उसमे बहो; और तब अचानक तुम्हें अपने भीतर के उस केंद्र का बोध हो गा जो कभी नहीं बदलता है, जो सदा वही का वही रहता है।
ऐसा क्यों होता है? क्योंकि जब तुम विश्रामपूर्ण होते हो तो बदलाहट की पृष्ठभूमि में विपरीत दिखाई पड़ता है। परिवर्तन की पृष्ठभूमि में तुम्हें सनातन का, शाश्वत का बोध होता है। अगर तुम संसार को या अपने को बदलने का प्रयत्न में लगे हो तो तुम अपने भीतर छोटे से अकंप, स्थिर ठहरे हुए केंद्र को नहीं देख पाओगे। तुम बदलाहट में इतने घिरे हो कि तुम उसे नहीं देख पाते हो जो है।
सब तरफ परिवर्तन है। यह परिवर्तन पृष्ठभूमि बन जाता है। कंट्रास्ट बन जाता है। और तुम शिथिल होते हो। विश्राम में होते हो, इसलिए तुम्हारे मन में भविष्य नहीं होता। भविष्य के विचार नहि होते। तुम यहां और अभी होते हो। यह क्षण ही सब कुछ होता है। सब कुछ बदल रहा है—और अचानक तुम्हें अपने भीतर उस बिंदू का बोध है जो कभी नहीं बदला है।
‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’
इसका अर्थ यही है। लड़ो मत। मृत्यु के द्वारा अमृत को जान लो; मृत्यु के द्वारा मृत्यु को मर जाने दो। उससे लड़ाई मत करो।
तंत्र की दृष्टि को समझना कठिन है। कारण है कि हमारा मन कुछ करना चाहता है। और तंत्र है कुछ न करना। तंत्र कर्म नहीं, पूर्ण विश्राम है। लेकिन यह एक सर्वाधिक गुह्म रहस्य है। और अगर तुम इसे समझ सको। अगर तुम्हें अगर तुम्हें इसकी प्रतीति हो जाए,तो तुम्हें किसी अन्य चीज की चिंता लेने की जरूरत नहीं है। ये अकेली विधि तुम्हें सब कुछ दे सकती है।
तब तुम्हें कुछ करने की जरूरत नही है। क्योंकि तुमने इस रहस्य को जान लिया है जो परिवर्तन से परिवर्तन का अतिक्रमण कर रहा हे। मृत्यु से मृत्यु का अतिक्रमण हो सकता है। काम से काम का अतिक्रमण हो सकता है। क्रोध से क्रोध का अतिक्रमण हो सकता है। अब तुम्हें यह कुंजी मिल गई है कि जहर से जहर का अतिक्रमण हो सकता है।

ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-तीन


Tuesday, November 24, 2015

◆◆◆◆◆◆ REINCARNATION ◆◆◆◆◆◆ :-- OSHO



“Eastern psychology says that it is not the parents who decide your life. Really, you have chosen them.
You have chosen particular parents. You are responsible.
If I am born to a particular mother and to a particular father, this is my choice. They will determine me because I have allowed them to determine me. I have chosen them because of so many actions in my past life.
It is a chain.
So, ultimately, I remain responsible. If I choose a very violent father, or if I choose a very wise man, whatsoever my choice is, it is my choice. Then they determine me, but this determination by parents, education etc is not ultimate.
Ultimately, you remain the master; you can throw it at any moment. It is difficult but it is not impossible.
It is very difficult because it is not just like throwing your clothes. It is like changing your skin. It is so deep-rooted in you. Everything that has happened has gone so deep that it has become your blood and bones. You are made out of it. Now you cannot conceive yourself apart from it. Your identity has become mixed with it.
But still, to throw it is not impossible. You can jump out of it!
Really, all yoga is concerned only with this, how you can get out of all the influences that have made you whatsoever you are, how to jump out of them, how t go beyond, how
to go beyond your parents, how to go beyond your education, how to go beyond your heredity, how to go beyond your past lives.
The whole science of YOGA consists only in this, to help you go beyond.
“See the point. Millions of foolish people were making love when you were hovering to take birth. But still, you have chosen a certain couple, why ?
You must have a certain idea. It is your choice. And then you say, “My parents have done harm to me.” In the first place, why have you chosen them ?
Nobody is responsible except you! This is one of the hardest truths to accept. But once you accept it, it brings great freedom, great space.
Because with this, another possibility opens up. If I am responsible then I can change.
If I am not responsible, how can I change? And then the natural self comes of it’s own accord. The natural has always been there, hidden under the rubbish.”.. ...

~ OSHO ~ (The Ultimate Alchemy)

अश्लीलता - युद्ध में या चुम्बन में? :-- ओशो


यह बहुत मजे की बात है कि जीवन के असम्मान के कारण प्रेम

अशोभन मालुम पडता है। क्योंकि प्रेम जीवन का गहनतम फूल है।

अगर दो आदमी सडक पर लड रहे हों तो कोई नहीं कहता अश्लील

है। लेकिन दो आदमी गले में हाथ डालकर एक वृक्ष के नीचे बैठे

हैं,तो लोग कहेंगे ,अश्लील है! हिंसा अश्लील नहीं है,प्रेम

अश्लील है! प्रेम क्यों अश्लील है? हिंसा क्यों अश्लील नहीं है?

हिंसा मृत्यु है,प्रेम जीवन है। जीवन के प्रति असम्मान है और मृत्यु

के प्रति सम्मान है।

देखिए, कितनी हैरानी की बात है! युद्ध की फिल्में बनती

है,कोई सरकार उन पर रोक नहीं लगाती । हत्या होती है,खून

होता है फिल्म में,कोई दुनिया की सरकार नहीं कहती कि

अश्लील है। लेकिन अगर प्रेम की घटना है तो सारी सरकारें

चिंतित हो जाती हैं। सरकारें तय करती हैं कि चुंबन कितनी दूर से

लिया जाय! छः इंच का फासला हो कि चार इंच का फासला

हो! कि कितने इंच के फासले से चुम्बन श्लील होता है और कितने

इंच के फासले पर अश्लील हो जाता है! लेकिन छुरा भोंका जाये

फिल्म में,तो अश्लील नही होता! कोई नहीँ कहता कि छः इंच

दूर रहे छुरा !

यह बहुत विचार की बात है कि क्या कठिनाई है। चुम्बन में ऎसा

क्या पाप है,जो छुरा भोंकने में नहीं है? लेकिन चुम्बन जीवन का

साथी है और छुरा मृत्यु का। छुरे पर किसी को एतराज नहीं है।

हम सब आत्मघाती है।हम सब हत्यारे है।लेकिन प्रेम के हम सब दुश्मन

हैं ! यह दुश्मनी क्यों है? इसको अगर हम बहुत गहरे में खोजने जायें

तो हमारा जीवन के प्रति सम्मान का भाव नहीं है।

Wednesday, November 18, 2015

जेलर: मैंने कभी भी नहीं सोचा था कि तुम्हारी मौजूदगी से यह जेल भी मंदिर बन सकता है -ओशो :



मैं अमरीका के पहले दो दिन जेल में बंद था। तीसरे दिन उस जेल से मुझे दूसरी जेल में ले जाया गया। उस जेल का जेलर तीसरे दिन मेरे पास कोठरी में अकेला आया। उसकी आंखों में आंसू थे। और उसने कहा, मुझे एक बात की क्षमा मांगनी है। मैंने कहा, आपके द्वारा मेरे ऊपर कोई अत्याचार नहीं हुआ है। मेरी सब तरह से सुविधा की आपने व्यवस्था की है, क्षमा किस बात की? उसने कहा कि क्षमा मुझे इस बात की मांगनी है कि पहले दिन जब आप जेल में आए तो कोई आधा घंटे बाद जर्मनी से एक फोन आया और उस फोन करने वाले ने पूछा कि भगवान, आपकी जल में हैं यह आपका सौभाग्य है। और शायद आपके पूरे जीवन में ,बीते और आने वाले जीवन में ऐसे कोई व्यक्ति आपकी जेल में दुबारा नहीं आएगा। मेरा आपसे कोई परिचय नहीं था, उस बूढ़े जेलर ने कहा, और अकड़ भी थी तो उसने जर्मन फोन करने वाले को कहा कि नहीं, मेरे जेल में बहुत बड़े-बड़े लोग आ चुके हैं। बैबिनेस्ट स्तर के मिनिस्टर भी मेरी जेल में बंद रह चुके हैं। तो यह कोई नयी अनूठी बात नहीं है।

तो मैंने कहा, इसमें कोई हर्जा नहीं है। इसमें मुझसे क्षमा क्या मांगनी है? उसने कहा कि हर्जा यह है कि मुझे इस आदमी के फोन का कोई पता नहीं है। तुम नए आए थे, तुम्हें जानता न था। फिर हजारों फोन आने शुरू हुए, तार आने शुरू हुए, टैलेक्स आने शुरू हुए और हजारों फूलों की डालियां आना शुरू हुई। ऐसा मेरे जले में कभी भी न हुआ था। जेल बड़ा था, छह सौ कैदी थे, लेकिन इतने फूल आए कि फूलों को रखने की जगह न रही। उसने मुझसे पूछा, इन फूलों का मैं क्या करूं? मैंने कहा, सारे विभाग जेल के हैं उनमें बांट दो। उसने कहा, बांटने का सवाल ही नहीं हैं। उन्हीं सब विभागों में तो फूल भरे हुए हैं। तो मैंने कहा, स्कूलों में, कलेजौ को, युनिवर्सिटी को, सब विभागों को, विद्यालयों को मेरी तरफ से फूल भेज दो। जिस कोठरी में मुझे रखा गया था...वह दिन में कम से कम छह बार मुझे मिलने आता था। नर्सें परेशान थीं, डाक्टर परेशान था क्योंकि वे कहते हैं यह आदमी कभी साल-छह महीने में एक बार इस तरफ आता था और यह दिन में दह बार यहां आता है। वह अपनी पत्नी और बच्चों को दिखाने के लिए मुझे अपने साथ लाया और कहा कि बस एक ही आकांक्षा है कि मेरे साथ और मेरे परिवार के साथ-साथ एक चित्र निकलवा लें और दस्तखत कर दें। दो महीने बात मैं रिटायर हो जाऊंगा। यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी स्मृति है। क्योंकि मैंने कभी भी नहीं सोचा था कि तुम्हारी मौजूदगी से यह जेल भी मंदिर बन सकता है।

क्योंकि कैदियों ने टेलीविजन पर निरंतर मुझे देखा था। कई कैदियों के पास किताबें थीं। कुछ कैदियों ने ध्यान करने के प्रयोग किए थे। उन सबने प्रार्थना की जेलर से, कि यह हमारा सौभाग्य है कि वे तीन दिन के लिए हमारे जेल में हैं। हमें मौका दिया जाए कि हम उन्हें सुन सकें। हमें मौका दिया जाए कि वे हमें ध्यान करवा सकें। हमें मौका दिया जाए।


उस बूढ़े की यह कल्पना के बाहर था कि ये खतरनाक कैदी ध्यान करना चाहते हैं। और इन छह सौ कैदियों में एक भी मेरे विरोध में नहीं है। कोई डेढ़ सौ कर्मचारी जेल में होंगे, वे भी सब सम्मिलित होते थे ध्यान के लिए। और उसने एक आखिरी कदम उठाया जो कि कभी भी नहीं उठाया गया था। उसने मुझसे पूछा कि अनेक टेलीविजन स्टेशन, रेडियो स्टेशन पूछ रहे हैं कि क्या हम कुछ प्रश्न पूछने के लिए जेल के भीतर आ सकते हैं? इसका कोई इतिहास नहीं है। कोई जेल के भीतर इस तरह नहीं आ सकता। लेकिन उसने कहा कि मैंने उन सबको आज्ञा दी है आज सांझ सात बजे। अब मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा? दो महीने की कुल नौकरी है। ज्यादा से ज्यादा दो महीने पहले रिटायर हो जाऊंगा। उसने जेल के भीतर वर्ल्ड प्रेस कांफ्रैंस बुलायी। कोई सौ पत्रकार जेल के भीतर इकट्ठे किए। और जब मैं पत्रकारों से बोलने जा रहा था तो उसने कान में कहा कि इस बात की जरा भी चिंता न करना कि यह जेल है। और तुम्हें वही नहीं कहना है जो हमें अच्छा लगे...नहीं; तुम्हें वही कहना है जो अच्छा है। वह चाहे हमारे विरोध में हो।

और तीन दिन के बाद छोड़ते वक्त डाक्टर की आंखों में आंसू थे, नर्सों की आंखों में आंसू थे, जेलर की आंखों में आंसू थे। डाक्टर एक महिला थी और उसने कहा कि मैं नहीं चाहती कि आपको कभी इस जेल से छोड़ा जाए। मैंने कहा कि तेरी आकांक्षा तो ठीक है लेकिन सारी दुनिया में फैले मेरे संन्यासी रहा देख रहे हैं कि मुझे छोड़ा जाए। उसने कहा, इसलिए तो मैंने सिर्फ कहा कि मेरे मन का भाव है कि तुम सदा यहीं रहो। मैं मैं जानती हूं कि वहां हजारों लोग तुम्हारी प्रतीक्षा करते होंगे। जब तीन दिन में हम तुम्हारे साथ इतना मेल-जोल बढ़ा लिए, जो लोग वर्षों से तुम्हारे साथ हैं उनके दुख और चिंता को हम अनुभव कर सकते हैं लेकिन हमें भूल मत जाना।

- ओशो

Monday, November 16, 2015

“आतंकवाद ! जिम्मेदार कौन?” – ओशो


आतंकवाद की घटना निश्चित रूप से उस सबसे जुड़ी है, जो समाज में हो रहा है। समाज बिखर रहा है। उसकी पुरानी व्यवस्था, अनुशासन, नैतिकता, धर्म सब कुछ गलत बुनियाद पर खड़ा मालूम होता है। लोगों की अंतरात्मा पर अब उसकी कोई पकड़ नहीं रही।आतंकवाद का मतलब इतना ही है कि लोग मानते हैं कि मनुष्य को नष्ट करने से कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो अविनाशी है, बस पदार्थ ही पदार्थ है। और पदार्थ को नष्ट नहीं किया जा सकता, सिर्फ उसका आकार बदला जा सकता है। एक बार मनुष्य को केवल पदार्थ का संयोजन माना गया और उसके भीतर के आध्यात्मिक तत्व को कोई स्थान नहीं दिया गया तो मारना एक खेल हो जाता है।इस धरती पर आणविक अस्त्रों का अंबार लगा हुआ है, और क्या आपको खयाल है कि आणविक अस्त्रों की वजह से राष्ट्र असंगत हो गए हैं? आणविक अस्त्रों की ताकत इतनी बड़ी है कि कुछ ही क्षणों में पूरे भूगोल को नष्ट किया जा सकता है।यदि पूरा विश्व एक साथ कुछ मिनटों में नष्ट किया जा सकता है तो विकल्प यह है कि पूरा विश्व एक हो जाए। अब वह बँटा हुआ नहीं रह सकता। उसका अलग रहना खतरनाक है, क्योंकि देश अलग रहे तो किसी भी क्षण युद्ध हो सकता है। अब देशों की सीमाएँ बर्दाश्त नहीं की जा सकतीं। सब कुछ स्वाहा करने के लिए सिर्फ एक युद्ध काफी है। और यह समझने के लिए मनुष्य के पास बहुत वक्त नहीं है कि हम ऐसा संसार बनाएँ, जहाँ युद्ध की संभावना ही न रहे।

आतंकवाद की बहुत सी अंतरधाराएँ हैं। एक तो, आणविक अस्त्रों का निर्माण करने की पागल दौड़ में सभी राष्ट्र अपनी-अपनी शक्ति उस दिशा में उड़ेल रहे हैं। पुराने अस्त्र तिथिबाह्य(out of date) होते जा रहे हैं। वे राष्ट्रीय स्तर पर तिथिबाह्य तो हुए हैं लेकिन निजी तौर पर व्यक्ति उनका इस्तेमाल कर सकते हैं। और आप एक अकेले व्यक्ति के खिलाफ तो आणविक अस्त्रों का उपयोग नहीं कर सकते।यह बिलकुल मूढ़तापूर्ण होगा। अगर एक अकेला आतंकवादी बम फेंकता है तो क्या आप उस पर एक मिसाइल बरसाएँगे? मेरा मुद्दा यह है कि आणविक अस्त्रों ने व्यक्तियों को पुराने अस्त्रों का उपयोग करने की स्वतंत्रता दी है। यह स्वतंत्रता अतीत में संभव नहीं थी, क्योंकि सरकारें भी उन्हीं शस्त्रों का प्रयोग कर रही थीं। आतंकवाद के लिए अमीर देश जिम्मेदार हैं।

अब सरकारें पुराने अस्त्र -स्त्रों को नष्ट करने में लगी हैं, उन्हें समुंदर में फेंक रही हैं, गरीब देशों को बेच रही हैं, जो नए अस्त्र नहीं खरीद सकते। और सभी आतंकवादी उन गरीब देशों से आ रहे हैं, जो नए अस्त्र खरीदने की हैसियत नहीं रखते। उन्हें जो अस्त्र बेचे गए हैं, उनके द्वारा ही वे हमला करते हैं। और उनके साथ एक अजीब सुरक्षा है। आप उन पर आणविक अस्त्र या बम फेंक नहीं सकते।आतंकवाद विकराल रूप धारण करने वाला है। और उसका कारण अति विचित्र है, वह यह कि अब तीसरा विश्व युद्ध नहीं होगा। और मूढ़ राजनीतिकों के पास कोई विकल्प नहीं है। आतंकवाद का मतलब है कि अब तक जो सामाजिक रूप से किया जा रहा था, अब व्यक्तिगत तल पर होगा। यह और बढ़ेगा। यह तभी बदलेगा, जब हम आदमी की समझ को जड़ से बदलेंगे, जो कि हिमालय लाँघने जैसा दुरूह काम है। क्योंकि वे ही लोग जिन्हें तुम बदलना चाहोगे, तुमसे लड़ेंगे। वे आसानी से बदलना नहीं चाहेंगे।

आदमी के अंदर बसा हुआ प्राचीन शिकारी युद्ध में संतुष्ट हो जाता था। अब युद्ध की संभावना न रही, और शायद अब कभी नहीं होगा। उस शिकारी ने पुनः सिर उठाया है, और सामूहिक रूप से हम लड़ नहीं सकते। तो एक ही रास्ता बचा रू हर व्यक्ति अपनी दबी हुई भाप को निकाले।चीजें अंतर्संबंधित हैं। सबसे पहली बात बदलनी है वह है, मनुष्य को उत्सव की कला सिखानी चाहिए। इसे सारे धर्मों ने मार डाला है। जो असली मुजरिम हैं, उन्हें तो गिरफ्तार नहीं किया जाता। ये आतंकवादी और अन्य अपराधी तो शिकार हैं, ये तो तथाकथित धर्म हैं जो वास्तविक मुजरिम हैं, क्योंकि उन्होंने मनुष्य की आनंद की सारी संभावना को ही नष्ट कर डाला है। उन्होंने जीवन की छोटी-छोटी खुशियों का मजा लेने की संभावना को ही जला दिया।

उन्होंने उस सब को निंदित कर दिया जो प्रकृति ने तुम्हें आनंदित होने के लिए दिया है| जिससे तुम उत्तेजित होते हो , प्रसन्न होते हो। उन्होंने सब कुछ छीन लिया। और कुछ चीजें ऐसी हैं, जिन्हें वे नहीं छीन सकते क्योंकि वे तुम्हारी जैविकी का हिस्सा हैं| जैसे कि सेक्स, उन्होंने इसे इतना निंदित किया कि वह विषाक्त हो गया है।जो व्यक्ति सुविधा में या ऐशो-आराम में जी रहा है, वह कभी आतंकवादी नहीं हो सकता। धर्मों ने ऐश्वर्य की निंदा की और गरीबी की प्रशंसा की। अब धनी आदमी कभी आतंकवादी नहीं हो सकता। सिर्फ गरीब, जो कि “धन्यभागी हैं”| वे ही आतंकवादी हो सकते हैं। उनके पास खोने को कुछ नहीं है । और वे समूचे समाज के खिलाफ उबल रहे हैं, क्योंकि सभी उच्च वर्ग के पास वे चीजें हैं, जो इनके पास नहीं हैं।

लोग भय में जी रहे हैं, नफरत में जी रहे हैं, आनंद में नहीं। अगर हम मनुष्य के मन का तहखाना साफ कर सकें…और उसे किया जा सकता है।

ध्यान रहे, आतंकवाद बमों में नहीं हैं, किसी के हाथों में नहीं है, वह तुम्हारे अवचेतन में है। यदि इसका उपाय नहीं किया गया तो हालात बदतर से बदतर होते जाएँगे। और लगता है कि सब तरह के अंधे लोगों के हाथों में बम हैं। और वे अंधाधुंध फेंक रहे हैं। हवाई जहाजों में, बसों और कारों में, अजनबियों के बीच… अचानक कोई आकर तुम पर बंदूक दाग देगा। और तुमने उसका कुछ बिगाड़ा नहीं था।

तो व्यक्तिगत हिंसा में वृद्धि होगी…हो ही रही है। और तुम्हारी सरकारें और तुम्हारे धर्म नई स्थिति को समझे बगैर पुरानी रणनीतियों को अपनाए चले जाएँगे। नई स्थिति यह है कि प्रत्येक मनुष्य को आतंरिक चिकित्सा से गुजरना जरूरी है, उसे अपने अवचेतन उद्देश्यों को समझना जरूरी है। प्रत्येक को ध्यान करना आवश्यक है ताकि वह शांत हो जाए, उसकी तल्खी ठंडी हो जाए और वह संसार को नए परिप्रेक्ष्य से देखे, मौन से सराबोर हो जाए।

– ओशो —